Wednesday, 22 February 2012

आधुनिक भारत में जाति का सवाल

भारतीय समाज और राजनीति में जाति को लेकर इधर कुछ दिनों से एक नई चेतना बन रही है, जिसका अध्‍ययन और विश्‍लेषण करना देश के संवैधानिक लक्ष्‍यों से लेकर जाति से पीडित स्‍त्री-पुरुषों के प्रति न्‍याय तक प्रासांगिक है. कुछ लोगों की दृष्टि में इधर कुछ ऐसी घटनाएं हो रही हैं जिनसे लगता है कि हमारा समाज, विशेषतौर हमारी सरकार और राजनीतिक समुदाय जातिविहीन समाज की रचना के संकल्‍प को कुचल रहे हैं. वे सब मिलकर तात्‍कालिक लाभ की दृष्टि से ऐसे उपाय कर रहे हैं जिससे जाति वापस आ रही है. दूसरी तरफ, समाज वैज्ञानिकों का बहुत बडा समूह यह स्‍वीकार कर रहा है जाति का पारंपरिक रूप, जो छुआछूत, पवित्र-अपवित्र, जजमान-पुरोहित जैसे सांचों से बना था, उसकी सामाजिक जीवन में लगातार प्रासांगिकता घटती जा रही है क्‍योंकि हम अब धीरे-धीरे नियमबद्ध संबंधों के जरिए अपने आसपास के संसार को रचने की क्षमता विकसित कर रहे हैं. और इसके पीछे जनतंत्र और आधुनिकीकरण का बहुत जबर्दस्‍त योगदान है. लेकिन यह समूह इस बात से इन्‍कार नहीं करता कि जाति का नया अवतार हुआ है जिसमें सामाजिक और सांस्‍कृतिक पक्ष की तुलना में राजनीतिक पक्ष संदर्भों में प्रासांगिक और उपयोगी है. जाति को लेकर एक तीसरी सच्‍चाई यह भी दिखाई पडने लगी है कि जाति और हिंदू धर्म का संबंध अब धर्म के दायरे से उपर उठकर, जाति और सभी धर्मों के बीच के संबंध के रूप में समझा जाना चाहिए. दलित ईसाई आंदोलन, मुसलमानों में पसमांदा समाज का आंदोलन, सिक्‍खों में मजहबी सिक्‍खों का आंदोलन और बौद्धों में नवबौद्धों की समस्‍याएं जाति की धर्मनिरपेक्ष वास्‍तविकता को पहचानने का सवाल उठा रही है.
      हमारी सरकार ने राजनीतिक नेतृत्‍व के आह्वान और सामाजिक संगठनों के आंदोलनों के प्रभाव पर आज जाति की गणना का निर्णय लिया है. 1931 के बाद अस्‍सी वर्ष के अंतराल पर राज्‍यसत्‍ता को भी समाज की बनावट को समझने के लिए जाति की जनगणना की जरूरत महसूस हुई. यह भी जाति को देखने के लिए एक जरूरी प्रसंग बनाता है. अगर जाति के बारे में चर्चा की जाए तो जाति व्‍यवस्‍था के जो अलग-अलग रूप और संदर्भ हैं, उनसे जोडे बिना हम कुछ सामान्‍य और सतही निष्‍कर्षों तक ही पहुंच सकते हैं, जिसमें दोनों तरह का सच गैरजरूरी बन जाता है- जाति खत्‍म हो रही है, जाति बढ रही है. ये दोनों अतियां संदर्भहीन चर्चा से ही निकलती है. वास्‍तविकता यह है कि जाति का आज से ही नहीं, शुरू से ही ग्रामीण और नगरीय स्‍वरूप अलग-अलग रहा है. गांव में जाति का पेशे और सामाजिक हैसियत के साथ अभिन्‍न संबंध रहा है. हर जाति का एक निश्चित पेशा और उस पेशे की एक सामाजिक हैसियत. ग्रामीण समाज में जाति और संपत्ति का भी बहुत घनिष्‍ठ संबंध रहा है- कुछ जातियां संपत्तिवान होने की क्षमता रखती थी और कई जातियों को संपत्तिवान होने से लगातार निषिद्ध रखा गया. ग्रामीण समाज में ही यह भी संभव था कि धर्म एक होने पर जाति के आधार पर अं‍तर्गत और बहिष्‍कृत की में दो कोटियां हुआ करती थीं जो सांस्‍कृतिक जीवन के नियमों और कानूनों को बनाने का आधार बनती थी और जिसके पीछे पवित्रता और अपवित्रता का ढांचा बनाया जाता था. इसके समानांतर नगरीय समा‍ज में जाति का स्‍वरूप व्‍यवसाय से तो जुडा था लेकिन नगर का औद्योगिक और आधुनिक पक्ष जाति के लिए हमेशा एक चुनौती का स्रोत रहता था. इसलिए यह आकस्मिक नहीं था कि भक्ति आंदोलन के सभी बडे प्रणेता या तो यायावर थे या नगरों में गैर खेतिहर पेशों से जुडे हुए लोग थे. इनमें कबीर का उदाहरण सबसे उल्‍लेखनीय है जिन्‍होंने काशी के कबीर चौरा में बैठकर हिंदू और मुसलमान, दोनों के पाखण्‍डों और ढोंगो पर सीधा हमला किया और जातिविहीन संसार का सच बार-बार उजागर किया.
      अंग्रेजी राज के आने के बाद से जाति में हुए परिवर्तनों को हम जनतांत्रिक भारत में हो रहे परिवर्तनों के संदर्भ में अत्‍यंत उपयोगी मानते हैं क्‍योंकि अंग्रेजी राज में ही पहली बार जाति का क्षेत्रीय सच जनगणनाओं के जरिए, 1871-72 से शुरु होकर 1931, आधी शताब्‍दी में एक जड और स्थिर और अलंघ्‍य व्‍यवस्‍था बन गई. जाति की जनगणना के हर दशक में जाति क्‍या है, इसकी परिभाषा भी लगातार परिवर्तित और परिवर्द्धित होती रही. इसी को लेकर कई समाजशास्त्रियों की यह मान्‍यता है कि जाति का सच औपनिवेशिक भारत में जडता की हद तक समाज के सामाजिक जीवन के संदर्भ में राज्‍य व्‍यवस्‍था द्वारा संरक्षित किया गया. यह मान्‍यता कई समाज सुधारकों की इस सोच से अलग जाती है कि अंग्रेजी राज में जाति का ढांचा कमजोर हुआ क्‍योंकि अंग्रेजी राज के ही दौर में आधुनिक शिक्षा, जातिविरोधी आंदोलनों को प्रश्रय और जाति संबंधी कई निषेधों को गैर-कानूनी ठहराने का काम किया गया. यह तो सभी को याद है कि जाति के ही प्रसंग में अंबेडकर और गांधी के बीच में अंग्रेजी राज की मध्‍यस्‍थता के कारण खुली टकराहट हुई थी और येन-केन प्रकारेण अनुसूचित जाति के लोगों के लिए विधान मंडल, नौकरियों और शिक्षा के क्षेत्र में आरक्षण का प्रावधान किया गया.
आज जाति की व्‍याख्‍या करते समय हम प्रायः चुनाव के समय हो रही जातिगत गोलबंदी और दलों के बीच में विभिन्‍न जातियों के अंदर अपना वोट बैंक बनाने की होड सबसे ज्‍यादा उल्‍लेखनीय तरीके से सबसे ज्‍यादा चर्चा का विषय बनता है. लेकिन इस जातिवाद की चर्चा करते समय हमें यह ध्‍यान रखना चाहिए कि यह जाति व्‍यवस्‍था में बुनियादी परिवर्तन के कारण संभव हुआ है कि ब्राह्मणों, दलितों और यादवों की गोल एक दूसरे से एक सीधी कानूनी व्‍यवस्‍था के अंतर्गत आधुनिक राजतंत्र पर कब्‍जा करने के लिए होड में आ गए हैं. जाति व्‍यवस्‍था होड का निषेध करती है. जाति में लोगों की जगह पारंपरिक, पौराणिक और समकालीन शक्तियों की मदद से स्थिर रखी जाती थी. आज का जाति समूह और उससे जुडी हुई राजनीतिक व्‍यूह रचना जाति के आधुनिकीकरण का परिणाम है. इस तरह से हमारी जाति व्‍यवस्‍था आधुनिकता के दो दौर से गुजरी है. इन दोनों के अलग-अलग परिणाम है. इन परिणामों को समझे बिना हम जाति के नए अवतार की ठीक समझदारी नहीं कर सकते.
      जाति के आधुनिकीकरण का पहला दौर एक तरह से प्रतिक्रियावादी था क्‍योंकि उसमें शास्‍त्रीय आधारों पर जातियों की परिभाषा की गई और शास्‍त्रों में उल्लिखित वर्ण व्‍यवस्‍था के इर्द-गिर्द हजारों जातियों को जोडने की कोशिश की गई. उनके अधिकारों और दावों की पहचान बनाई गई. नतीजा यह हुआ कि जाति की पिघलने की क्षमता, जिसे समाजशास्‍त्रीयों ने संस्‍कृतिकरण की प्रक्रिया कहा, और जाति के अंतर्गत एक स्‍थान से दूसरे स्‍थान पर निर्वासन या प्रवास के कारण होने वाली संभावनाएं सीमित हो गईं. परिणामस्‍वरूप हर कोने में हर भारतीय की एक ही जाति जैसी बन गई. जबकि अंग्रेजी राज से पहले जाति की सीमाएं भाषा और क्षेत्रीय इतिहास से जुडी होती थी. दूसरे, अंग्रेजी राज ने जाति की औपनिवेशिक आधुनिकता का संक्रमण पैदा किया- जिसमें उसकी गिनती हुई, जिसमें उनकी परस्‍पर दूरियों का निर्धारण हुआ और जिसके दौरान कुछ जातियों को वंचित समूह के रूप में पहचान का अधिकार मिला. इसी परिवेश में हमें ज्‍योतिबा फुले, शाहूजी महाराज, डा. भीमराव अंबेडकर और रामास्‍वामी नायकर जैसे सामाजिक क्रांतिकारियों की भूमिका का मूल्‍यांकन करना चाहिए. औपनिवेशिक राज्‍यसत्‍ता के जाति दर्शन को लेकर इन समाज नायकों ने नई दृष्टि और वैकल्पिक व्‍यवस्‍था की मांग की. जिस पर अंग्रेजी राज ने कोई सीधी नीति कभी इख्तियार नहीं की. लेकिन सारांशतः यह तो स्‍वीकारा ही जाएगा कि अंग्रेजी राज के दौरान लगभग डेढ शताब्‍दी की अवधि में कई कोनों से जाति के विरूद्ध आंदोलन उठे और इन आंदोलनों ने भक्ति आंदोलन से लेकर गैर हिंदू धर्मों से वैधता प्राप्‍त की. इन आंदोलनों के दबाव से जाति परंपरा के दोष के रूप में सर्वसम्‍मति से स्‍वी‍कृति के दायरे में आ गई.
      परिणामतः जब हम जाति की आधुनिकता के दूसरे दौर में पहुंचे, यानी स्‍वाधीनोत्‍तर भारत में जाति का स्‍थान तय करने का अवसर आया तो संविधान सभा ने तीन साल की लंबी बहस के बाद सर्वसम्‍मति से भविष्‍य के भारत के लक्ष्‍य के तौर पर जातिविहीन और वर्गविहीन समाज की रचना का संकल्‍प किया. यह असाधारण राष्‍ट्रीय सहमति थी जिसे आनी वाली पीढियां एक सांस्‍कृतिक क्रांति का दस्‍तावेज मानेंगी क्‍योंकि भारत के स्‍वाधीनता के पूर्व के किसी भी काल में- बौद्घ, मुगल, अंग्रेज या देशी रियासतों के द्वारा प्रवर्तित समाज व्‍यवस्‍था में जाति का कहीं न कहीं एक दबाव जारी रहा. स्‍वाधीन भारत के आरंभिक दशकों में जाति व्‍यवस्‍था के आधार होने वाले भेदभाव को न केवल अवैध करार देना, बल्कि जाति के कारण सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक और सांस्‍कृतिक अवसरों से वंचित लोगों के लिए विशेषाधिकारों की व्‍यवस्‍था, यानी आरक्षण का प्रावधान किसी क्रांति से कम नहीं था.
      लेकिन आज आरक्षण की नीति एक नए मोड पर पहुंच गई है. यह जाति के जनतांत्रीकरण और आधुनिकीकरण का निर्णायक परिणाम है. आज आरक्षण की नीति को लेकर आरक्षण से वंचित समूहों से ज्‍यादा आरक्षण के दायरे में समेटे गए समूहों के बीच अंतर्विरोध प्रकट हो रहा है. इसके चार स्‍तर तो सभी को दिखाई पड रहे है- पहला स्‍त्री और पुरूष का अंतर. एक ही जाति में, जिसे आरक्षण का लाभ दिया गया है, पुरुषों की तुलना में स्त्रियों के लिए सीमित अवसर हैं, और इसके लिए समाज की पितृसत्‍तात्‍मक व्‍यवस्‍था की मूल जिम्‍मेदारी है जो खुले और अप्रत्‍यक्ष तौर पर जाति को पुष्‍ट करती रही है. जाति और लिंगभेद के दायरे एक-दूसरे पर पलते रहे हैं. आरक्षण की नीति से इसको टूटना चाहिए था लेकिन कई कारणों से आज आरक्षण से लाभान्वित जातियों में भी इस प्रश्‍न का एक अलग स्‍थान है.
स्‍त्री-पुरूष के प्रसंग के अलावा आज जाति के संदर्भ में दलितों के बीच में दलित और महादलित का ध्रुवीकरण पूरे देश में पहचाना जा चुका है. पहले ये पंजाब और आंध्रप्रदेश में अदालतों में चर्चा का विषय बना और आज ये बिहार से शुरू होकर उत्‍तर प्रदेश तक आरक्षण की नीति में संशोधन का आधार बनाया गया है.
तीसरी बात, अन्‍य पिछडा वर्ग से संबंधित आरक्षण के पिछले बीस बरस के सामाजिक परिवर्तन के प्रयोगों के मौजूदा परिणामों को लेकर है. इसके दो नतीजे दिखाई पड रहे हैं- एक तरफ अन्‍य पिछडा वर्ग के दायरे में कई समूह राजनीतिक, शैक्षणिक और सरकारी नौकरियों में अपनी उपस्थिति बढाने में सफल हुए हैं. उन्‍होंने शुरू के दशक में एक अगडा बनाम पिछडा का ध्रुवीकरण भी पैदा किया लेकिन अब अन्‍य पिछडा वर्ग के नेतृत्‍व को लेकर पिछडा वर्ग की दबंग या प्रभु जातियों में होड हो रही है.
चौथी बात, आरक्षण नीति को लेकर एक चीज सकारात्‍मक तौर पर दिखाई पड रही है- धर्मों के दायरे में पल रही जाति व्‍यवस्‍था पर प्रहार के लिए आज आरक्षण की नीति के इस्‍तेमाल का आग्रह है. इसकी अगुवाई दलित-ईसाई आंदोलन से हुई और अब हिंदुओं और मुसलमानों में भी कई समूह या तो खुद को अन्‍य पिछडा वर्ग में शामिल कराने का आंदोलन चला रहे हैं, या आरक्षण के अंदर उपआरक्षण की मांग कर रहे हैं.
यह सब अंततः समाज में महामंथन पैदा कर रहा है क्‍योंकि हम स्‍त्री-पुरुष, जाति प्रसंग, धार्मिक समूहों में निहित विषमता, गांव और शहर के बीच का अंतर और द्विजों व गैर-द्विजों के बीच के फासले को बहुत गहराई तक देखने के लिए आत्‍मविश्‍वास पैदा कर चुके हैं. इसी के समानांतर संक्षेप में यह भी देखने की जरूरत है कि भारत में आज 'जाति तोडो' या जातिविरोधी आंदोलनों की क्‍या दशा है. शुरू में इन आंदोलनों को हमने दक्षिण भारत में ब्राह्मणविरोधी मोर्चा और पश्चिम भारत में गैर-ब्राह्मण मोर्चे के रूप में उभरते देखा था जिसमें ब्राह्मणों की सर्वोच्‍चता को जाति व्‍यवस्‍था का मूलाधार मानते हुए उसका निषेध व उससे आगे समाज को ले जाने की कोशिश पहला लक्ष्‍य माना गया था. लेकिन आज जातिविरोधी आंदोलनों के पुराने वाहक थके से लगते हैं. मध्‍यम जातियों में पूरे भारत में जाति को लेकर कोई विशेष नकारात्‍मक आग्रह दिखाई नहीं पड रहा है. इसके परिणामस्‍वरूप उत्‍तर प्रदेश जैसे राज्‍य में दलितों को अपने हितों की रक्षा के लिए और अपने राजनीतिक क्षेत्रफल के विस्‍तार के लिए ब्राह्मणों के साथ खुला मोर्चा बनाकर सर्वजन समाज की राजनीति को शुरू करने का दबाव स्‍वीकारना पडा है. क्‍या कारण है कि आज जाति विरोधी आंदोलन के मूल वाहक, यानी मध्‍य जातियां और दलित जातियां परस्‍पर सहयोग में असमर्थ हैं? क्‍या कारण है कि जाति व्‍यवस्‍था से सबसे ज्‍यादा पीडित समाज अंश, यानी विभिन्‍न जातियों की स्त्रियां, एक दूसरे के साथ मिलकर महिला आरक्षण का आंदोलन तो चला रही हैं लेकिन महिला आरक्षण को मंडलवादी ताकतों का सीधा मुकाबला करना पड रहा है? क्‍या कारण है कि आरक्षण नीति के विस्‍तार के लिए सर्वोच्‍च न्‍यायलय के खुले निर्देशों के बावजूद हम परस्‍पर सहयोग और साझेदारी के भाव के बजाय हिस्‍से और बंटवारे की बात ज्‍यादा कर रहे हैं? आरक्षण में आरक्षण आज सभी पुरानी जाति तोडो शक्तियों का लक्ष्‍य बन गया है. इससे जाति को एक नया आधार मिलता दिखाई पड रहा है. क्‍योंकि अगर हमारी जातीय पहचान संगठित नहीं होगी, घुली-मिली रहेगी तो हमारा आरक्षण के अंदर आरक्षण का दावा पूरा नहीं हो सकता. परिणामस्‍वरूप जाने-अनजाने जाति की पीडित जमातें कई कारणों से जातिगत पहचानों को नया आधार और नया आकार देने की संवैधानिक व्‍यवस्‍था के लाभ के लिए विवशता महसूस कर रही हैं.
ये सब तो राजनीति की बातें हुईं, क्‍या भूमंडलीकरण के कारण जाति व्‍यवस्‍था पर कुछ प्रभाव पड रहा है? क्‍या देश भर में रोजगार की तलाश में लाखों की तादाद में एक इलाके से दूसरे इलाके जा रहे लोगों का सच जाति व्‍यवस्‍था को कमजोर करने, यानी अंतर्जातीय विवाहों को बढाने में कुछ मदद कर रहा है? इन सबसे उपर आधुनिक शिक्षा और सूचना क्रांति से जाति की सीमाओं और समस्‍याओं को लेकर हम कुछ ज्‍यादा आत्‍मालोचक बनने की क्षमता विकसित कर रहे हैं? इन सभी प्रश्‍नों का उत्‍तर 21वीं शताब्‍दी के दूसरे दशक को देना पडेगा क्‍योंकि अब न तो पुरानी जाति व्‍यवस्‍था चल सकती है और न ही जातिविहीन समाज बनाने का पुराना आदर्श किसी के लिए भी आकर्षक रह गया है. फिर तीसरा रास्‍ता क्‍या होगा, जिसमें स्‍त्री, दलित, अतिपिछडा, अल्‍पसंख्‍यकों का पिछडा और आदिवासी खुलकर जनतंत्र की व्‍यवस्‍था में निहित त्रिमुखी न्‍याय का लाभ उठा सके और सारा समाज परस्‍पर सहमति के आधार पर जातिविहीन और वर्गविहीन दुनिया की रचना के ऐतिहासिक संकल्‍प के साथ ईमानदारी से अपना संबंध बनाए रख सके. इसके लिए अगर हम नए प्रसंगों को पुरानी समस्‍याओं की परछाई से दूर नहीं करेंगे तो बहस तो चलेगी 21वीं शताब्‍दी में लेकिन मुहावरे और मुद्दे 19वीं और 20वीं सदी के हम पर हावी रहेंगे. यह दुर्भाग्‍यपूर्ण स्थिति होगी. इसलिए आज, कम से कम समाज-वैज्ञानिकों को, राजनीतिज्ञों और जातीय समूहों के नायकों का बोझ हल्‍का करने के लिए उन पर दोषारोपण करने की बजाय नई परिस्थितियों का वैज्ञानिक विश्‍लेषण समाज के सामने प्रस्‍तुत करना चाहिए. इसी के समानांतर समाज को बदलने का सपना देखने वालों को भी जाति प्रसंग की अनदेखी करने की बजाय जाति के अंदर फूट रही नई शाखाओं,  सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक चेहरे में दिख रही नई भाव भंगिमा को भी नजदीक से समझने का साहस दिखाना चाहिए.
(गंगा सहाय मीणा से हुई बातचीत पर आधारित)

Monday, 16 January 2012

Where do we start about it?

What are you making about the new found interest among the politicians about the need to extend a helping hand to the discriminated and excluded sections of our society? Offers of a large variety ranging from 4.5% (or 9%) from the Congress Party to 18% by Samajwadi Party are floating around in the media with focus upon the Muslim voters. Then there is talk about the need to create specific space for the Most Backward Classes to get some opportunities within the Mandal Formula of 27% reservations in the government jobs and educational institutions. There is continuity of campaign for 30% reservation for women in Parliament and assemblies, with hope of its acceptance in near future. We also get the whispers about national implementation of the Maha-Dalit quota within the quota of the Scheduled Castes on the lines of Nitish Model of Bihar to weaken the grip of the mobile castes among the Dalits.
Is it a drive to address the challenge of nation-building? Or we can look at them as indicators of genuine concern to meet the hopes and aspirations of the victims of our model of development, including the Reservation Formulas? Or it is a simple case of political opportunism to enlarge the social base of one’s political formation. Are we facing a situation of ‘No win’ situation where the gainers are not gratified, the non-gainers are extremely unhappy and the losers are always complaining?
We need a clear picture of a complex socio-political process. So far it has given good results in terms of promoting political representation of the traditionally excluded sections as well as promoting social-educational mobility for a large variety of ‘backward classes’. But it is becoming obvious that in the recent years, the Reservation policies have reached the point of saturation.  Their contradictions are making them counter-productive to some extent. They need holistic review to fulfill their role in creating a social order with social-economic and political justice for all Indians irrespective of their caste, class, gender, and faith identities. 
There is relevance of social scientific engagement on the basis of latest facts and figures about the functions and dis-functions of the Reservation provisions for the victims of the caste system, gender discrimination, and the model of development promoted by dominant caste democracy. So that there is prevention of  a paradoxical anti-reservation wave by the traditional opponents of it on the basis of the complaints of the women, the Most Backward Classes, the Mahadalit Castes, the Dalit Christians, the Majahabi Sikhs and Pasamanda Musalmans.
Where do we start about it?

Wednesday, 30 November 2011

भ्रष्‍टाचार के खिलाफ लोहा गरम है

भ्रष्‍टाचार भारतीय समाज समेत सभी जनतांत्रिक और गैर-जनतांत्रिक देशों की राष्‍ट्र-निर्माण की प्रक्रिया की सबसे बडी चुनौती है. भ्रष्‍टाचार का अर्थ निजी हितों के लिए सार्वजनिक पदों का दुरुपयोग है. हमारी नई सत्‍ता व्‍यवस्‍था राजनीतिक समानता, सामाजिक और आर्थिक न्‍याय, परस्‍पर भाईचारा और राष्‍ट्रीय एकता के आधार पर बनाना चाहते हैं, इसमें अगर हमारे ही वोट से पदों पर बैठे हुए लोग, हमारे ही संविधान के अंतर्गत कार्यपालिका और न्‍यायपालिका का विभिन्‍न पदों पर बैठे लोग, हमारे ही पैसे में गबन करें, हमारे ही विकास में बाधक बनें, हमारी ही गठरी में चोरी करें तो यह हमारी राजनीतिक और सैद्धांतिक पराजय का क्षण हो जाता है. संपन्‍नता के समाज में तो भ्रष्‍टाचार और जनतंत्र का कोई रिश्‍ता हो सकता है, लेकिन गरीबी, जनतंत्र और भ्रष्‍टाचार साथ-साथ नहीं चल सकते. इसलिए मैं भ्रष्‍टाचार को किसी वर्ग विशेष, दल विशेष या काल विशेष की समस्‍या न मानकर इसे जनतंत्र निर्माण की सबसे बडी समस्‍या, सबसे बडी चुनौती के रूप में देखता हूं. यह आग और पानी जैसा संबंध है. अगर जनतंत्र की ज्‍वाला को प्रज्‍जवलित करना है तो भ्रष्‍टाचार से हमें अपने को दूर रखना पडेगा. अब सवाल यह उठता है कि भ्रष्‍टाचार के कारकों में इधर, एकाएक इतनी बढोतरी क्‍यों हो गई? इसका जवाब ये है कि तमाम कमियों के बावजूद आजादी के बाद के दिनों में जो पहली पी‍ढी शासकों की बनी, वह सादगी और स्‍वाबलंबन से जुडे रास्‍ते पर चलने के लिए प्रतिबद्ध थी. इसी क्रम में उसने सत्‍ता के लिए संपत्ति के संचय को जरूरी नहीं माना. लेकिन पिछले 25 सालों में सत्‍ता अपने आप में एक लक्ष्‍य बन गई है. जिसके हाथ में सत्‍ता है, उसके दरवाजे पर बहुदेशी कंपनियों से लेकर देशी निहित स्‍वार्थों की लंबी कतारें लग जाती हैं. उनके सिद्धांत, दर्शन और राजनीतिक दिशा से इन तबकों का कोई वास्‍ता नहीं है. वे अपने ता‍त्‍कालिक हितों के लिए सत्‍ताधारियों की सेवा में बहुत कुछ समर्पित करने को तैयार रहते हैं. क्‍योंकि राजनीति अब तात्‍कालिक गठजोड के आधार पर सत्‍ता पाने की सीढी बन गई है, इसलिए इसमें साम-दाम-दण्‍ड-भेद, सबका इस्‍तेमाल बाजिव हो गया है. पहले राजनीति राष्‍ट्र-निर्माण का मोर्चा थी, अब राजनीति सत्‍ता की भूख से व्‍याकुल कुर्सी झपटने और कुर्सी से लिपटने की लडाई हो गई है. ये गुणात्‍मक अंतर आया है. खुलेआम पूंजीवाद की तरफ जाना, खुलेआम मुनाफे और संपत्ति संचय को आदर्श बनाना राजनीति में एक बडे बदलाव के तौर पर देखा जा सकता है. इसका यह अर्थ नहीं है कि भ्रष्‍टाचार के निदान के लिए हमें नई आर्थिक नीतियों के बदलने तक का इंतजार करना चाहिए. ये नीतियां तो अपने अंतर्विरोधों के कारण देर-सवेर बदलेंगी ही. लेकिन इनके बदलने के बावजूद भ्रष्‍टाचार राजनीतिक कलाकौशल का, संसदवादी प्रयासों का एक अनिवार्य अंग बनता जा रहा है. यह आगे के दिनों में भी एक लंबी परछाई की तरह हमारे सार्वजनिक जीवन में बना रहेगा.

     जैसा राजनीतिक परिवर्तनों के लिए चलने वाले आंदोलनों के इतिहास में हुआ है, हर नई लडाई पुरानी लडाई की बेटी जैसी होती है. उसकी सफलताएं और असफलताएं पिछली लडाइयों के दौरान सीखे गए सबकों से जुडते हैं. आज अन्‍ना हजारे, रामदेव, अरविन्‍द केजरीवाल, प्रशांत भूषण से लेकर गांव-कस्‍बे में सूचना के अधिकार का इस्‍तेमाल करने वाले अनाम जनहितकारी जनसंगठनों औ व्‍यक्तियों की लंबी कतार का प्रस्‍थान बिंदु 1974 का जयप्रकाश नारायण जी के नेतृत्‍व में चला भ्रष्‍टाचार विरोधी आंदोलन है. जयप्रकाश जी के आंदोलन का मूल 1973-74 के गुजरात और बिहार के विद्यार्थियों की भ्रष्‍टचार के खिलाफ बगावत थी. इस मायने में आज की इस लडाई को उस महागाथा का एक नया अध्‍याय मानता हूं. इन सबके मूल में राष्‍ट्रीय आंदोलन के बलिदानियों की लंबी कतार है जिन्‍होंने निस्‍वार्थ भाव से उस समय के भ्रष्‍टाचारियों का मुकाबला करते हुए आने वाले दिनों की आशा में उन्‍होंने उस समय मौत से लेकर जेल की चीखों तक का वरण किया. वह आंदोलन जो गांधी, भगतसिंह के बीच के व्‍यापक दायरे से पैदा ऊर्जा से चला था, जिसके बलिदान ने एक पूरी नई पीढी तैयार की थी, उनके आत्‍मविश्‍व‍ास और आत्‍मबल के कारण भारत विदेशी जमातों की जकड से आजाद हो सका था. इसके बाद आज की लडाई जयप्रकाश जी के संपूर्ण क्रांति आंदोलन से जुडती है.

एक मायने में यह लडाई अलग इस तरह से है कि आज समूचा राजनीतिक तंत्र इस लडाई के आह्वान और संबोधन से बाहर है. जयप्रकाश जी के जमाने में राजनीतिक कार्यकर्ताओं में से सदाचारी और भ्रष्‍टाचारी की पहचान हो जाती थी. सदाचारियों का बहुमत था, भ्रष्‍टाचारियों का अल्‍पमत था. आज समूची राजनीतिक जमात दुर्योधन दरबार जैसी दिखाई पडती है. झंडा किसी रंग का हो, शासन में आने के बाद सबकी चाल एक जैसी हो जाती है. सबके चेहरे पर अवैध कमाई की चिकनाहट दिखाई पडने लगती है. सभी दल सत्‍ता हासिल करने के लिए काले धन के इस्‍तेमाल से मोहब्‍बत करने लगे हैं. मॅनीपॉवर, मसलपॉवर और मीडिया पॉवर, यानी धनबल, बाहुबल और प्रचार बल- इस त्रिकोण में वे लोकतंत्र की आत्‍मा का हनन करने में भी संकोच नहीं करते. इसलिए मैं इस लडाई को चिंता की दृष्टि से देखता हूं. अगर ये लडाई सफल हुई तो ये सिद्ध हो जाएगा कि राजनीतिक जमातें हमारे देश की दुर्दशा में समाधान की जगह व्‍यवधान है. और अगर ऐसा निर्णय निकला तो यह जनतंत्र की सबसे बडी जरूरत राजनीतिक चेतना, राजनीतिक जिम्‍मेदारी, राजनीतिक कर्म को पूरा करने में हमारा समाज लंबे समय तक अक्षम हो जाएगा. भारतीय समाज में जनतांत्रीकरण राजनीतिकरण के बाद ही संभव है. आज की राजनीति जनतांत्रीकरण की साधक की बजाय बाधक हो रही है. आज की संसद जनतंत्र को गहरा करने के बजाय उसकी जडों में जहर डाल रही है. लेकिन आने वाले समय में अगर हमें जनतंत्र की जरूरत है तो चुनाव की भी जरूरत होगी, चुनाव होंगे तो दल होंगे, दल होंगे तो उनकी आपसी होड होगी, और होड होगी तो उसमें युद्घभाव होगा या राष्‍ट्रनिर्माण का भाव होगा, यह आज तय करना जरूरी है.

आज की लडाई की सफलता का एक बडा आधार यह होगा कि जनलोकपाल बिल और सरकारी लोकपाल बिल में से कौनसा आता है. जब-जब समाज में ध्रुवीकरण होता है तो दोनों ही पक्षों के शुभ एक-दूसरे से मिल जाने की संभावना रखते हैं. कभी-कभी दोनों पक्षों का अशुभ भी एक-दूसरे से मिल जाता है. क्‍या दिल्‍ली से लेकर बैंगलोर तक फैली ये सोने की लंका, जो कालेधन से बनी है, का दहन होगा और गांव और गरीब की भूमि पर नया समाज बनाने के लिए प्रतिबद्ध राजनीतिज्ञों की जमात अपने-अपने दलों पर फिर से कब्‍जा कर लेगी, यह एक बडा प्रश्‍न है. इसमें अन्‍ना हजारे जैसे लोगों को ध्‍यान देना पडेगा. भ्रष्‍टाचार का एक बडा कारण राजनीतिक जमातों में नैतिकता का अवमूल्‍यन है. जो साधन की शुचिता का ध्‍यान रखते थे, वे चुनाव हारने लगे हैं. इसके माध्‍यम से एक व्‍यावहारिक अस्तित्‍वादी संकट पैदा किया गया है. केवल सत्‍ता में बैठे लोगों को नियंत्रित करने के लिए हमें कानून नहीं चाहिए, इसके साथ सत्‍ता को चलाने वाली समूची राजनीतिक संस्‍कृति को भी हमें फिर से शुद्ध करना पडेगा. इसके लिए चुनाव प्रक्रिया में सुधार आवश्‍यक हैं.

मैं इस ताजा लडाई के प्रति हार्दिक शुभकामना रखते हुए इसके अधूरेपन के प्रति गहरी आशंका भी रखता हूं. इसके लिए अन्‍ना हजारे की तरफ देखना, उनके कंधे पर सारी जिम्‍मेदारियों डालना, गैर-जिम्‍मेदारी होगी. इस समय लोहा गरम है. देश की सारी लोकतांत्रिक ताकतों को भ्रष्‍टाचार के खिलाफ शंखनाद करने का इससे अच्‍छा समय नहीं आएगा, जो जहां है वहां अन्‍ना हजारे बने. दर्शकदीर्घा में खडे लोग इस आंदोलन की अगली कडी बनें. यह जयप्रकाश आंदोलन के जैसा विकेन्द्रित आंदोलन है. समुद्र की लहर जैसा ये उठ रहा है और मामूली बूंद आकाश तक उछलने की क्षमता रख रही है, बशर्ते वह स्‍वयं पवित्र जल की बूंद हो.  

(गंगा सहाय मीणा से हुई बातचीत पर आधारित)

लोकतंत्र और वर्तमान राजनीतिक परिदृश्‍य

इस समय एक साथ सूर्योदय और सूर्यग्रहण जैसा दिखाई पड रहा है. खगोलशास्त्रियों की दृष्टि में ये असंभव वैज्ञानिक घटना होगी लेकिन समाज-वैज्ञानिकों की दृष्टि में एक तरफ जनता के बीच में आशाओं के हनन और निराशाओं के बादल घिरने के कारण एक असाधारण अभिव्‍यक्ति का दौर अन्‍ना हजारे के अनशन के बहाने शुरू हुआ, जो स्‍वामी रामदेव के अनशन से होते हुए अन्‍ना के दूसरे अनशन तक लगभग तीन-चार महीने आत्‍ममंथन के रूप में देश की स्‍मृति में एक महत्‍वपूर्ण स्‍थान बना चुका है. यह भारतीय लोक का आत्‍मसाक्षात्‍कार है जिसमें वो अपनी ही बनाई जनतांत्रिक व्‍यवस्‍था, अपने ही वोट से चुने हुए दलों के नेताओं और जनप्रतिनिधियों के अत्‍यंत अस्‍वीकार्य आचरण को लेकर मर्माहत हैं और मोहभंग के दौर से गुजर रहे हैं. मोहभंग के बावजूद आशा का भी एक नया अध्‍याय शुरू हुआ है क्‍योंकि सिवाय नाराजगी के और कुछ भी करना है. इसमें दो स्‍पष्‍ट लक्ष्‍य बन गए हैं- चुनाव सुधार और चुने हुए जनप्रतिनिधियों तथा संविधान के जरिए ताकत पाने वाले अधिकारियों की मनमानी पर रोक लगाना. इन लक्ष्‍यों को पूरा करने के लिए एक कानूनी दृष्टि से स्‍वीकार्य मसविदा भी पेश हो गया है. इस माने में अब रामलीला मैदान के जरिए जनता के दरबार में जनप्रतिनिधियों की पेशी हो गई है. इसने पूरे देश में तमाम प्रकार की प्रतिक्रियाएं पैदा की हैं, जो लोकतंत्र का आत्‍ममंथन भी है और इस समय एक नया देवासुर संग्राम भी है. क्‍योंकि खुले तौर पर भ्रष्‍टाचार के पक्षधर और भ्रष्‍टाचार से पीडित आमने-सामने हो गए हैं. यह अलग बात है कि भ्रष्‍टाचार के पक्षधर बिल्‍कुल दुर्योधन दरबार की शैली में अहंकार के अट्टाहास लगाते दिखाई पड रहे हैं. व्‍यंग्‍य कर रहे हैं, आरोप लगा रहे हैं, मुकदमे मढ रहे हैं और दूसरी तरफ असहायता की अंतिम सीढी पर अन्‍ना हजारे जैसा एक जनप्रवक्‍ता खडा दिखाई पड रहा है जिसके इर्द-गिर्द मुट्ठीभर आदर्शवादी समाजसेवी और असंख्‍य शुभचिंतक हैं.

      दूसरी तरफ सूर्यग्रहण इस मायने में हो रहा है कि देश की के‍न्‍द्रीय और राज्‍य सरकारों में नीतिहीनता का चरमबिंदु दिखाई पड रहा है. इसको अंग्रेजी में पॉलिसी पैरालिसिस भी कहा जा रहा है. सरकारों में परस्‍पर समन्‍वय का अभाव है- केन्‍द्र और राज्‍यों के बीच में. केन्‍द्र की सरकार और राज्‍यों की सरकारें एक ही मुद्दे पर अलग-अलग स्‍वर से बोल रही हैं. इस सबका सारांश सर्वोच्‍च न्‍यायलय के नोटिस पर भारत सरकार के विशेषज्ञों की सर्वोच्‍च समिति अर्थात योजना आयोग द्वारा पेश यह बयान है कि अगर आज के हालात में कोई भी व्‍यक्ति 25 रूपये दैनिक से ज्‍यादा की खर्च की क्षमता रखता है तो उसे गरीब नहीं मानना चाहिए. इसी के समानांतर यह सच भी सामने आ चुका है कि देश के 77 फीसदी लोग 20 रुपया रोज से ज्‍यादा की आय क्षमता नहीं रखते. दूसरी तरफ भारत की केबिनेट में केन्‍द्रीय सरकार के 77 फीसदी मंत्री करोडपति और अरबपति हैं. इस विडंबना का क्‍या समाधान हो सकता है, इसको हम आने वाले चुनाव के संदर्भ में जरूर ध्‍यान में रखें क्‍योंकि जनता के बीच में अक्‍सर छोटे सवालों के आगे बडे सवाल ध्‍यान से उतर जाते हैं. जैसे, भाषा का सवाल, रोजगार का सवाल. विभिन्‍न जातियों द्वारा आरक्षण की मांग से जाहिर हो गया है कि हिस्‍सामार की राजनीति हो रही है. टुकडे-टुकडे की राजनीति हो रही है. इसमें एक समग्र दृष्टि, अर्थात मोहभंग से पैदा एक नए विकल्‍प का आवेग पूरी भारतीय जनता के लिए एक लंबी छलांग जैसा मौका है जिसमें औरत का दर्द है, पिछडे का दर्द है, दलित की तकलीफ है, गरीब सवर्णों का स्‍वर है, और कुल मिलाकर जनसाधारण की आवाज है. बहुत दिनों बाद लघुमानव महामानवों से पंजा लडाने की जुगत लगा रहा है. लोकतंत्र लघुमानव का ही तंत्र है. जाने-अनजाने पिछले 20 साल के उदारीकरण ने किसानों के दाम की लूट की, आदिवासियों की जमीन पर कब्‍जा किया, मध्‍यवर्ग को मृगमरीचिका में फंसाया. अब जब यह सब अमेरिका में ही नहीं चल पा रहा है, फ्रांस, जर्मनी, इंग्‍लैण्‍ड में ही जब इसकी बार-बार जांच हो रही है, तो भूमंडलीकरण का नशा अब भारत के आम मतदाता के लिए काम की चीज नहीं रह गई है.

      इसी तरह से पिछली सरकार की असफलताओं के बाद जो संयुक्‍त प्रगतिशील गटबंधन में कांग्रेस का हाथ आम आदमी के साथ का आश्‍वासन दिया था और उसके बाद महात्‍मा गांधी ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना, शिक्षा का अधिकार, सूचना का अधिकार आदि को कानून बनाया तो एक उम्‍मीद थी कि ये सुधर रहे हैं. ये बेहतर हो रहे हैं. सचमुच आम आदमी की पीडा इनके मन को छू रह है. लेकिन अन्‍ना हजारे के अनशन से यह सब एक स्‍वांग जैसा साबित हुआ है. अगर कपिल सिब्‍बल से लेकर राहुल गांधी तक सब एक स्‍वर से आम आदमी की आवाज को बल देने के लिए अन्‍न त्‍याग कर चुके अन्‍ना हजारे पर इतना खुला हमला करने का दुस्‍साहस करते हैं तो यह कहने में संकोच नहीं करना चाहिए कि सत्‍ता का नशा चारों तरफ फैल गया है.

      इसी तरह से गैर-कांग्रेसी दलों की तरफ से फिर से ढोंग की राजनीति करने का दुस्‍साहस किया जा रहा है. 2002 से लगातार, पहले आम नागरिकों के प्रति, उसके बाद उनके प्रति हमदर्दी रखने वाले पुलिस-प्रशासनिक अधिकारियों को तरह-तरह से प्रताडित करने के बाद नरेन्‍द्र मोदी ने तीन दिन का सद्भावना उपवास रखा. दुर्भावना की राजनीति को सद्भावना की मुलम्‍मेबाजी से छिपाने की कोशिश किसके लिए की जा रही है? नरेन्‍द्र मोदी जैसे राजनेता राजधर्म को नहीं जानते, यह उनके आका भी स्‍वीकार कर चुके हैं. बजाय प्रायश्चित्‍त स्‍वरूप सार्वजनिक जीवन से सन्‍यास लेने के वह दिल्‍ली पर भी अपनी निगाह गडाने का साहस कर रहे हैं. मुझे लगता है कि नरेन्‍द्र मोदी जैसे लोग देश के लिए एक खास तरह की चुनौती हैं. वे ये समझते हैं कि आम आदमी की याददाश्‍त नहीं है, समझ नहीं है और आम आदमी को भुलावे में डाला जा सकता है.

      इसी के समानांतर दलित अस्मिता को नया आयाम देने वाली उत्‍तर प्रदेश की नेता और चौथी बार मुख्‍यमंत्री सुश्री मायावती भी संविधान और भारतीय राष्‍ट्र-निर्माण की चुनौतियों को दरकिनार करके प्रलाप जैसी स्थिति में पहुंच गई हैं. दलितों के आरक्षण में सुधार की बजाय वोट की तलाश में कभी वे सवर्णों को आरक्षण का आश्‍वासन दे रही है तो कभी मुसलमानों को. और जो आरक्षण पिछडे मुसलमानों और गरीब सवर्णों के लिए हैं, जो वायदे दलित और आदिवासियों के लिए हैं, औरतों के लिए हैं, उनकी पूरी अनदेखी करते हुए एक के बाद एक पत्‍थर की मूर्तियों का सिलसिला बना रही हैं. इनका मुकाबला करने वाली पार्टियों की तरफ से भी कोई ताजी दृष्टि नहीं आ रही है. वही वोट बैंक की राजनीति, वही अपराध और कालेधन का संयोग और उसके बाद चुनाव में लोक-लुभावन नारों के जरिए मतपेटियों को भरने का सपना.

      मैं समझता हूं कि भारतीय जनतंत्र अत्‍यंत नाजुक दौर से गुजर रहा है, जिसमें जनता और नेता के बीच इतनी दूरी शायद आपातकाल के 19 महीनों के बाद कभी नहीं थी. जब जनता और नेता के बीच दूरी होती है तो दो ही संभावनाएं हैं- नेता जनता को अपने मोहपाश में बांधे और गलत इरादों और गलत लक्ष्‍यों की तरफ पूरी राष्‍ट्रशक्ति को झौंक दे, जैसा हिटलर ने जर्मनी के संकट के समाधान के तौर पर पेश किया था और छह बरस तक जर्मन जनता को अपनी उंगलियों पर नचाता रहा. या जनता एक पीढी को इन्‍कार करती हुई नए नेतृत्‍व की ओर मुडे और जमीन से जनसेवकों की गहरी जडों वाली राजनीति को अपनी मुहर लगाए जैसा 1974-77 के दौर में लोकनायक जयप्रकाश की अगुवाई में जनता ने करने की कोशिश की थी. उससे भी पहले 1921 में महात्‍मा गांधी के नेतृत्‍व में उन्‍होंने एक नए तरह के राजनीतिक व्‍याकरण की रचना की थी.

      मैं आशावादी हूं क्‍योंकि 1950 से आज तक निराशा के गहन क्षणों में से ही आशा का सूरज उगता हमने देखा है. ये 1964-67 में हुआ, 74-77 में हुआ, 89-91 में हुआ, इस बार क्‍यों नहीं होगा? जो नजीजे हाल के चुनाव में बंगाल से आए, केरल से आए और कुछ उपचुनावों से आए, उससे पूरी तरह से आश्‍वस्‍त होने को मन करता है कि अगले दो बरस में राज्‍य सरकारों के चुनाव में और फिर केन्‍द्र की सरकार के चुनाव में हम सब अत्‍यंत विवेकसम्‍मत निर्णय प्रस्‍तुत करके अपने लोकतंत्र की लाज बचाएंगे और जनसाधारण के हो रहे नित्‍य अपमान से उसे मुक्ति दिलाएंगे. इन नेताओं का क्‍या होगा, कहना मुश्किल है. अगर हम सब सक्षम, समर्थ, सक्रिय, संगठित और संयमित रहे तो अधिकांश लोगों को मुकदमों में अपनी सफाई देनी पडेगी और उनमें से ढेर सारे लोगों को अपने किये की सजा के विभिन्‍न कारागारों में भुगतनी पडेगी. 

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(गंगा सहाय मीणा से हुई बातचीत पर आधारित)

सही विकल्‍प की तलाश में दुनिया

पूंजीवाद के नए और अत्‍यंत आकर्षक अवतार के रूप में भूमंडलीकरण के झंडे के नीचे विश्‍व की बडी कंपनियों और औद्योगिक राष्‍ट्रों ने पिछले बीस बरस से जो मायानगरी बनाने की कोशिश की थी, आज वह अपनी नाभि में ही तीव्र पीडा और गंभीर रोगों से ग्रस्‍त दिखाई पड रही है. आज से बीस साल पहले जब भूमंडलीकरण के भविष्‍य को लेकर, विशेषतौर पर श्रमजीवी जमातों की हितरक्षा के सवाल पर, जब चिंताएं प्रकट की गईं थी तो इसको निराशावादियों का प्रलाप कहा गया था. यह माना गया था कि आज की दुनिया कंप्‍यूटर और इंटरनेट के जरिए एक-दूसरे से कुछ इस तरह से जुडेगी कि शोषण, विषमता और निर्भरता- पूंजीवाद के ये तीनों सनातन सत्‍य प्रासंगिक नहीं रह जायेंगे. एक बराबरी की दुनिया बनेगी, जिसमें इंटरनेट और कंप्‍यूटर पूंजी और ज्ञान के क्षेत्र में विषमताओं को दूर करने में प्रबल सहायक बनेंगे. टेक्‍नोलॉजी को नए ईश्‍वर के तौर पर पेश करने वाला यह तर्क आज पूरी तरह से बेपर्दा हो चुका है. क्‍योंकि न सिर्फ एशिया, अफ्रीका और लैटिन अमेरिका की परिधि पर टंगे हुए राष्‍ट्रों के लोग, बल्कि अब इस उदारीकरण और भूमंडलीकरण की धुरी में स्‍थापित श्रमशक्ति से जुडे लोगों का स्‍वर पूरी तरह से मोहभंग का हो चुका है. कल तक यह कहा जा सकता था कि भूमंडलीकरण की संभावनाओं और इसकी शक्ति का उन लोगों को कोई अंदाज नहीं है जिन्‍होंने कंप्‍यूटर की शिक्षा नहीं पाई, अंग्रेजी नहीं पढी और औद्योगिक क्रांति संपन्‍न करने में असफल रहे. इसीलिए जब प्‍लाचीमाडा और कलिंगनगर में आदिवासी स्‍त्री-पुरुष अपनी जान की बाजी लगाकर भूमंडलीकरण का विरोध कर रहे थे तो दुनिया ने विशेष ध्‍यान नहीं दिया, लेकिन अब तो वॉल स्‍ट्रीट पर ही कब्‍जा करने का अमरीकी लोगों का अभियान चल रहा है और अमेरिका की देखा-देखी बाकी पूंजीवादी देशों में भी हाशिए पर फेंके जा रहे लोग, विशेषतौर पर युवाओं की तरफ से, खुलेआम इस व्‍यवस्‍था का लाभ उठा रहे बैंकों, उद्योगधंधों और नेताओं के त्रिगुट को चनौती दे रहे हैं. इसमें खुशी की यह बात भी है कि अमेरिका ने इस बार यह सब कौशल अरब देशों से सीखा है. वे खुलकर गांधी को अपना प्रेरणा स्रोत बता रहे हैं. एक भी घटना ऐसी नहीं है जिसको आप किसी की साजिश के तौर पर थोप सकें. यह एक स्‍वतः स्‍फूर्त और जनता की वेदना की गहराई से जुडा हुआ विश्‍वव्‍यापी असंतोष है. अगर कल तक भूमंडलीकरण के दावेदार यह कह रहे थे कि आपसे हम बहुत निकट हैं, कोका कोला और मैकडॉनल्‍ड कुछ किलोमीटर की दूरी पर दुनिया के हर क्षेत्र में आपको मिलेगा, तो आज यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि भूमंडलीकरण के हर प्रतीक पर आज लोगों के गुस्‍से का बादल मंडरा रहा है. दुनिया के किसी भी क्षेत्र में, पेरिस से लेकर पटना तक, और शंघाई से लेकर शाहजहांपुर तक, कहीं भी भूमंडलीकरण के पक्ष में एक भी सकारात्‍मक घटना या प्रगति दिखाई नहीं पड रही है.

     लेकिन अगर असंतोष किसी विकल्‍प के साथ नहीं जोडा गया, अगर असंतोष के मूल में भूमंडलीकरण की बुनियादी खराबी के तीनों चेहरों की चर्चा नहीं की गई तो यह असंतोष फिर बगैर किसी बडे नतीजे के घुल-मिल जाएगा. भूमंडलीकरण की तीन बडी खराबियां हैं- गरीब को हाशिए पर फेंकना, टेक्‍नोलॉजी के बहाने नई विषमता पैदा करना और पर्यावरण के बारे में कोई सरोकार नहीं रखना. इसीलिए ये टिकाउ नहीं है. जोसेफ स्‍टिग्‍लिट्ज ने ये जरूर कहा था कि भूमंडलीकरण मुमकिन है, बशर्ते कि ये न्‍यायपूर्ण हो. लेकिन न्‍यायपूर्ण होना पूंजीपतियों की फितरत में नहीं है. बगैर मुनाफा कमाए, निजी पूंजी पर आधारित कोई व्‍यवस्‍था चल नहीं सकती. मुनाफे के लिए न्‍यायसंगत दामनीति से आगे लूट-खसोट की अर्थनीति चलानी पडती है. मुनाफे में ग्राहक और श्रमिक, दोनों के साथ शोषण का संबंध बनाया जाता है, उनको मजबूर किया जाता है कि वे सस्‍ता श्रम बेचें और महंगा माल खरीदें.

     इसके बरक्‍स, इसके विकल्‍प के तौर पर जो समाजवादी भूमंडलीकरण की बात थी, जिसमें विश्‍व-बंधुत्‍व की बुनियाद पर 'जिसकी जितनी क्षमता, उससे उतना योगदान' और 'जिसकी जितनी जरूरत, उसको उतना सहयोग', यानी गरीब देशों का कर्जा माफ करना, खेती में पूंजी ले जाना, साधनहीन पानी, बिजली, सडक, शिक्षा, स्‍वास्‍थ्‍य का ताना बाना बुनना, जो किसी जमाने में विली ब्रांड की अध्‍यक्षता में गठित उत्‍तर-दक्षिण आयोग की सिफारिश थी, जिसके सचिव भारत के वर्तमान प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह स्‍वयं थे. यह कहा गया था कि दुनिया को एकजुट करने के लिए संपन्‍न देश अपनी राष्‍ट्रीय आय का दशमलब सात प्रतिशत भी अगर एक विश्‍व‍ विकास कोष में जमा करें तो दुनिया को भूख और भय, दोनों से मुक्ति मिलेगी. लेकिन ऐसा किया नहीं गया. अब जब वॉल स्‍ट्रीट में ही हंगामे के हालात हैं तो फिर से विकल्‍प की तरफ दुनिया का ध्‍यान जा सकता है. ऐसे में इस बडी लहर का इंतजार कर रहे लोगों की ये जिम्‍मेदारी बनती है कि नई विश्‍व रचना के आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक पक्ष के बारे में समता और संपन्‍नता के आधार पर क्‍या नियम बनें, और क्‍या व्‍यवस्‍थाएं छोडी जाएं? क्‍या प्रतिबंधित हो और क्‍या संवर्द्धित हो, इसकी बहस शुरू की जाए. अगर हम जरूरत से ज्‍यादा तमाशबीन बने रहे, तो थकान भी आ सकती है. और जब थकी हुई जनशक्ति आक्रामक और सुसंगठित पूंजीशक्ति के मुकाबले में खडी होगी तो कहीं न कहीं से तानाशाही और जनतंत्रविरोधी ताकतों को खुराक मिलने लगेगी. यह याद रखना होगा कि फ्रांस की जनता ने दुनिया को तो समता, स्‍वतंत्रता और बंधुत्‍व का संदेश दिया लेकिन वे खुद फ्रांस को समेट नहीं पाए और उनको अपनी क्रांति के बावजूद नेपोलियन बोनापार्ट जैसे तानाशाह का युद्धान्मुख शासन कई बरस तक झेलना पडा. यही जर्मनी में भी हुआ था, जहां क्रांति की परिस्थितियां तो पकी हुई थीं लेकिन संगठन और सहयोग और विकल्‍प के बारे में सहमति का अभाव था तो हिटलर पैदा हो गया. आज दुनिया को नेपोलियन बोनापार्ट और हिटलर की जरूरत नहीं है, लेकिन गांधी कहां है, नया विकल्‍प कहां है, बेहतर दुनिया बनाने वाला नेतृत्‍व कहां है?



(गंगा सहाय मीणा से हुई बातचीत पर आधारित) 

इंदिरा गांधी की पुण्‍यतिथि‍

श्रीम‍ती इंदिरा गांधी जिन परिस्थितियों में भारत की प्रधानमंत्री बनी और जिन परिस्थितियों में प्रधानमंत्री रहते हुए उनका दुखद अंत हुआ, दोनों ही उनको दुनिया की एक विशिष्‍ट राजनेता के रूप में महत्‍वपूर्ण बना चुकी हैं. इंदिरा जी के राजनीतिक योगदान के पांच पहलू आज की नेतृत्‍वविहीनता के दौर में और भी निखरकर दीखने लगे हैं. श्रीम‍ती इंदिरा गांधी का सबसे बडा कौशल अत्‍यंत विषम परिस्थितियों में सीधी चुनौती के साथ अपने मकसद के लिए अर्जुन जैसी एकाग्रता के साथ हर तरह के कलाकौशल का इस्‍तेमाल करके मकसद हासिल करना कहा जा सकता है. इसलिए वह दोनों अतियों की तरफ गईं. एक तरफ जब उनके प्रधानमंत्री के रूप में नेतृत्‍व को चुनौती दी गई तो उन्‍होंने अपने बाबा और पिता की बनाई कांग्रेस पार्टी को ही एक बेकार औजार के तौर पर मानकर एक पूरी नई पार्टी खडी कर दी. और जबर्दस्‍त राजनीतिक कौशल दिखाते हुए एक ऐसा नारा दिया जिसने 1971 में उनको देश ने सर्वमान्‍य नेता के रूप में विजय का सेहरा बांधा. दूसरी तरफ जब उनकी अपनी शासन व्‍यवस्‍था के दोषों को लेकर जयप्रकाश जी तथा उनके जैसे कुछ अन्‍य लोगों ने कुछ असुविधाजनक सवाल उठाए तो प्रतिपक्ष को बेअसर करने के लिए उन्‍होंने आपातकाल लगाने में भी संकोच नहीं किया. इंदिरा जी का दूसरा महत्‍वपूर्ण गुण उनकी राजनीतिक दृष्टि की तात्‍कालिकता और दीर्घकालिकता के बीच का समन्‍वय था. बैंकों के राष्‍ट्रीयकरण से लेकर बांग्‍लादेश के निर्माण में पहल तक उन्‍होंने न केवल असरदार राजनीति की, बल्कि दीर्घकालिक संरचनागत परिवर्तनों का भी नेतृत्‍व किया. इंदिरा जी का नेता के रूप में अपने अत्‍यंत यशस्‍वी जननायक पिता की परछाई से निकलकर गांव-गांव तक जनसाधारण के बीच सहज माता छवि का अधिकारी बन जाना उनकी खूबियों का सचमुच एक आकर्षक पक्ष है. इंदिरा जी को गंभीर राजनीतिक विचार दर्शन का अनुयायी या अत्‍यंत कुशल संगठन निर्माता, दोनों ही कहना मुश्किल होगा. लेकिन एक आकर्षक और सहज स्‍वीकार्य छवि को प्रस्‍तुत करने और उसको लगभग दो दशकों तक बनाए रखना भारतीय जनतंत्र के संदर्भ में मामूली उपलब्धि नहीं कही जाएगी. आज जब चौतरफा सत्‍ता प्रतिष्‍ठान के प्रति अविश्‍वास का वातावरण है, ऐसे में इंदिरा गांधी के नेतृत्‍व में तत्‍कालीन सरकार व्‍यवस्‍था ने गरीबों से लेकर वामपंथियों और पूंजीपतियों से लेकर राष्‍ट्रवादियों तक के बीच में जो आकर्षण पैदा किया था वह भी एक अजूबा ही कहा जाएगा. क्‍योंकि उनके समकालीन अन्‍य नेता टिकाउ राजनीति के जनक नहीं बन सके. शेख मुजीवुर्रहमान से लेकर जुल्‍फीकार अली भुट्टो तक दक्षिण एशिया में इंदिरा जी के समान व्‍यापक स्‍वीकृति वाला लंबे दौर का कोई दूसरा सत्‍ताधारी नहीं दिखाई पडता है. इस मायने में उन्‍होंने अमेरिका और इंग्‍लैण्‍ड के राष्‍ट्राध्‍यक्षों को पीछे छोडा. आज पीछे मुडकर देखने पर वामपंथियों से लेकर राष्‍ट्रवादियों तक सभी इंदिरा जी के शासन काल की कई नीतियों में कई दोष निकालते दिखाई पडते हैं, लेकिन यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि उन्‍होंने जयप्रकाश जी के आंदोलन के पहले और 1980 का चुनाव जीतने के बाद सबकी जुबानें बंद कर दी थी. किसी के पास कोई विशेष मुद्दा नहीं बचा था. दलितों, अल्‍पसंख्‍यकों और सवर्णों का ऐसा संयुक्‍त मोर्चा इंदिरा गांधी के नेतृत्‍व में सामने आया जो सारी सैद्धांतिक कसौटियों से परे बन गया था. इसलिए आज भी इंदिरा जी के सम्‍मोहन में देश के मध्‍यमवर्ग और बुद्घिजीवियों का बडा हिस्‍सा उनके जैसे नेता की बार-बार तलाश करता दिखाई पडता है. इंदिरा गांधी की आखिरी बात एक मायने में उनके निजी व्‍यक्तित्‍व को लेकर है. इंदिरा जी ने जिस कौशल के साथ जननेता, राजनेता और परिवार मुखिया, तीनों के बीच में संतुलन स्‍थापित किया, वह दुर्लभ ही कहा जाएगा. आज उनकी स्‍मृति तिथि पर यह कहना अति‍शयोक्ति नहीं होगा कि भारतीय राजनीति की एक विशिष्‍ट शैली की सूत्रधार के रूप में इंदिरा गांधी का अत्‍यंत सफल कार्यकाल रहा. इस शैली के अंतर्विरोधों का भी उन्‍होंने नुकसान उठाया है. इंदिरा जी जनतांत्रिक राजनीति के इतिहास में और भारतीय राष्‍ट्रनिर्माण की महागाथा में एक अत्‍यंत महत्‍वपूर्ण मिशाल के रूप में बहुत दिनों तक प्रासंगिक बनी रहेंगी. राजनीति के सर्वोच्‍च शिखर तक जाना, पदच्‍युत होने पर हाशिए पर फेंके जाना और वापस पुनः सफलता हासिल करके अपने यश और आधार को फिर पाना- यही इंदिरा गांधी की कहानी का सारांश है.

(गंगा सहाय मीणा से हुई बातचीत पर आधारित)

Monday, 28 November 2011

Let us stand for safe, violence free world !


There is a call to be actively associated with ‘ One Voice ‘ a social media based campaign to pledge to stand and act against Gender Based Violence around them. We are a coalition of individuals and organisations who believe in a safe, violence free world.
So that we will give ourselves some time to reflect about the present situation of people, particularly women, children, old age persons and foreign visitors, in terms of their personal dignity and security. It may lead us to reflect about our individual and collective attention towards the challenges for a safe society. We will avoid ‘blame game’ and engage in multiple mobilisations for it to promote ‘zero tolerance’ about violence against women and other vulnerable sections of our society.
Most of us come to know about the threats and dangers creating a feeling of being ‘unsafe’ from the media reports. But when we are trapped in such a sad situation, it makes us very unhappy and agitated. At the same time, we are advised to either

i)                    ignore the experience as a bad dream,
ii)                    go to police for catching the culprits.

Both are not very acceptable advises. The first creates deep fears in our unconscious and the second may make us get more unhappy due to the high likelihood of getting ignored by the police system. But both these responses make the chain of fearless criminals grow unfettered.
It is a matter of some satisfaction that these settings are changing a little bit in some ways. Both these routine responses are getting replaced by speaking out by the affected individuals and friends. We are also getting some help from the police department as they have started advising the citizens to remember to call Number 100 as soon as they get threatened by any aggressive individuals and groups. There are more narratives by hurt individuals in the media. There are more responses by the police to the calls made by ordinary men and women.
But the need to make Delhi safe needs strengthening of third and fourth possibilities also –

iii)                    going to the media,
iv)          contacting some effective voluntary organisation who care for the safety and security of people,particularly the vulnerable sections of our society.
Media has to become motivator and monitor of the process of checking bad behaviour. Otherwise our public spaces and resources, particularly the transport facilities like Bus stops and Metro stations may become dangerous spots in the late hours as in many large cities of the world. Similarly, we need resourceful public service organisations who should cooperate with the victims of violence to take their complaint to the logical conclusion by helping them

a) in filing complaints,
b) providing legal support,
c) giving them courage and counselling,
d) helping the administration in m organising public education drives and other preventive measures in Delhi.

The schools, colleges, universities, cultural organisations, sports clubs, community groups, resident welfare associations, trade unions, and temple-mosque-Gurdwara-church related committees have to think about the need to come together and clean our surrounding by resisting the habit of violence towards women, children, old age persons and foreign visitors.
Let us all tell each other that we stand for safe society and we will help anyone who comes forward to join in it. This has the potential for the rest of the nation to come together and say that we stand against Gender Based Violence.


This Blog is part of the Men Say No Blogathon, encouraging men to take up action against the violence faced by women. More entries to the Blogathon can be read at www.mustbol.in/blogathon. Join further conversation on facebook.com/delhiyouth & twitter.com/mustbol