भारतीय समाज और राजनीति में जाति को लेकर इधर कुछ दिनों से एक नई चेतना बन रही है, जिसका अध्ययन और विश्लेषण करना देश के संवैधानिक लक्ष्यों से लेकर जाति से पीडित स्त्री-पुरुषों के प्रति न्याय तक प्रासांगिक है. कुछ लोगों की दृष्टि में इधर कुछ ऐसी घटनाएं हो रही हैं जिनसे लगता है कि हमारा समाज, विशेषतौर हमारी सरकार और राजनीतिक समुदाय जातिविहीन समाज की रचना के संकल्प को कुचल रहे हैं. वे सब मिलकर तात्कालिक लाभ की दृष्टि से ऐसे उपाय कर रहे हैं जिससे जाति वापस आ रही है. दूसरी तरफ, समाज वैज्ञानिकों का बहुत बडा समूह यह स्वीकार कर रहा है जाति का पारंपरिक रूप, जो छुआछूत, पवित्र-अपवित्र, जजमान-पुरोहित जैसे सांचों से बना था, उसकी सामाजिक जीवन में लगातार प्रासांगिकता घटती जा रही है क्योंकि हम अब धीरे-धीरे नियमबद्ध संबंधों के जरिए अपने आसपास के संसार को रचने की क्षमता विकसित कर रहे हैं. और इसके पीछे जनतंत्र और आधुनिकीकरण का बहुत जबर्दस्त योगदान है. लेकिन यह समूह इस बात से इन्कार नहीं करता कि जाति का नया अवतार हुआ है जिसमें सामाजिक और सांस्कृतिक पक्ष की तुलना में राजनीतिक पक्ष संदर्भों में प्रासांगिक और उपयोगी है. जाति को लेकर एक तीसरी सच्चाई यह भी दिखाई पडने लगी है कि जाति और हिंदू धर्म का संबंध अब धर्म के दायरे से उपर उठकर, जाति और सभी धर्मों के बीच के संबंध के रूप में समझा जाना चाहिए. दलित ईसाई आंदोलन, मुसलमानों में पसमांदा समाज का आंदोलन, सिक्खों में मजहबी सिक्खों का आंदोलन और बौद्धों में नवबौद्धों की समस्याएं जाति की धर्मनिरपेक्ष वास्तविकता को पहचानने का सवाल उठा रही है.
हमारी सरकार ने राजनीतिक नेतृत्व के आह्वान और सामाजिक संगठनों के आंदोलनों के प्रभाव पर आज जाति की गणना का निर्णय लिया है. 1931 के बाद अस्सी वर्ष के अंतराल पर राज्यसत्ता को भी समाज की बनावट को समझने के लिए जाति की जनगणना की जरूरत महसूस हुई. यह भी जाति को देखने के लिए एक जरूरी प्रसंग बनाता है. अगर जाति के बारे में चर्चा की जाए तो जाति व्यवस्था के जो अलग-अलग रूप और संदर्भ हैं, उनसे जोडे बिना हम कुछ सामान्य और सतही निष्कर्षों तक ही पहुंच सकते हैं, जिसमें दोनों तरह का सच गैरजरूरी बन जाता है- जाति खत्म हो रही है, जाति बढ रही है. ये दोनों अतियां संदर्भहीन चर्चा से ही निकलती है. वास्तविकता यह है कि जाति का आज से ही नहीं, शुरू से ही ग्रामीण और नगरीय स्वरूप अलग-अलग रहा है. गांव में जाति का पेशे और सामाजिक हैसियत के साथ अभिन्न संबंध रहा है. हर जाति का एक निश्चित पेशा और उस पेशे की एक सामाजिक हैसियत. ग्रामीण समाज में जाति और संपत्ति का भी बहुत घनिष्ठ संबंध रहा है- कुछ जातियां संपत्तिवान होने की क्षमता रखती थी और कई जातियों को संपत्तिवान होने से लगातार निषिद्ध रखा गया. ग्रामीण समाज में ही यह भी संभव था कि धर्म एक होने पर जाति के आधार पर अंतर्गत और बहिष्कृत की में दो कोटियां हुआ करती थीं जो सांस्कृतिक जीवन के नियमों और कानूनों को बनाने का आधार बनती थी और जिसके पीछे पवित्रता और अपवित्रता का ढांचा बनाया जाता था. इसके समानांतर नगरीय समाज में जाति का स्वरूप व्यवसाय से तो जुडा था लेकिन नगर का औद्योगिक और आधुनिक पक्ष जाति के लिए हमेशा एक चुनौती का स्रोत रहता था. इसलिए यह आकस्मिक नहीं था कि भक्ति आंदोलन के सभी बडे प्रणेता या तो यायावर थे या नगरों में गैर खेतिहर पेशों से जुडे हुए लोग थे. इनमें कबीर का उदाहरण सबसे उल्लेखनीय है जिन्होंने काशी के कबीर चौरा में बैठकर हिंदू और मुसलमान, दोनों के पाखण्डों और ढोंगो पर सीधा हमला किया और जातिविहीन संसार का सच बार-बार उजागर किया.
अंग्रेजी राज के आने के बाद से जाति में हुए परिवर्तनों को हम जनतांत्रिक भारत में हो रहे परिवर्तनों के संदर्भ में अत्यंत उपयोगी मानते हैं क्योंकि अंग्रेजी राज में ही पहली बार जाति का क्षेत्रीय सच जनगणनाओं के जरिए, 1871-72 से शुरु होकर 1931, आधी शताब्दी में एक जड और स्थिर और अलंघ्य व्यवस्था बन गई. जाति की जनगणना के हर दशक में जाति क्या है, इसकी परिभाषा भी लगातार परिवर्तित और परिवर्द्धित होती रही. इसी को लेकर कई समाजशास्त्रियों की यह मान्यता है कि जाति का सच औपनिवेशिक भारत में जडता की हद तक समाज के सामाजिक जीवन के संदर्भ में राज्य व्यवस्था द्वारा संरक्षित किया गया. यह मान्यता कई समाज सुधारकों की इस सोच से अलग जाती है कि अंग्रेजी राज में जाति का ढांचा कमजोर हुआ क्योंकि अंग्रेजी राज के ही दौर में आधुनिक शिक्षा, जातिविरोधी आंदोलनों को प्रश्रय और जाति संबंधी कई निषेधों को गैर-कानूनी ठहराने का काम किया गया. यह तो सभी को याद है कि जाति के ही प्रसंग में अंबेडकर और गांधी के बीच में अंग्रेजी राज की मध्यस्थता के कारण खुली टकराहट हुई थी और येन-केन प्रकारेण अनुसूचित जाति के लोगों के लिए विधान मंडल, नौकरियों और शिक्षा के क्षेत्र में आरक्षण का प्रावधान किया गया.
आज जाति की व्याख्या करते समय हम प्रायः चुनाव के समय हो रही जातिगत गोलबंदी और दलों के बीच में विभिन्न जातियों के अंदर अपना वोट बैंक बनाने की होड सबसे ज्यादा उल्लेखनीय तरीके से सबसे ज्यादा चर्चा का विषय बनता है. लेकिन इस जातिवाद की चर्चा करते समय हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि यह जाति व्यवस्था में बुनियादी परिवर्तन के कारण संभव हुआ है कि ब्राह्मणों, दलितों और यादवों की गोल एक दूसरे से एक सीधी कानूनी व्यवस्था के अंतर्गत आधुनिक राजतंत्र पर कब्जा करने के लिए होड में आ गए हैं. जाति व्यवस्था होड का निषेध करती है. जाति में लोगों की जगह पारंपरिक, पौराणिक और समकालीन शक्तियों की मदद से स्थिर रखी जाती थी. आज का जाति समूह और उससे जुडी हुई राजनीतिक व्यूह रचना जाति के आधुनिकीकरण का परिणाम है. इस तरह से हमारी जाति व्यवस्था आधुनिकता के दो दौर से गुजरी है. इन दोनों के अलग-अलग परिणाम है. इन परिणामों को समझे बिना हम जाति के नए अवतार की ठीक समझदारी नहीं कर सकते.
जाति के आधुनिकीकरण का पहला दौर एक तरह से प्रतिक्रियावादी था क्योंकि उसमें शास्त्रीय आधारों पर जातियों की परिभाषा की गई और शास्त्रों में उल्लिखित वर्ण व्यवस्था के इर्द-गिर्द हजारों जातियों को जोडने की कोशिश की गई. उनके अधिकारों और दावों की पहचान बनाई गई. नतीजा यह हुआ कि जाति की पिघलने की क्षमता, जिसे समाजशास्त्रीयों ने संस्कृतिकरण की प्रक्रिया कहा, और जाति के अंतर्गत एक स्थान से दूसरे स्थान पर निर्वासन या प्रवास के कारण होने वाली संभावनाएं सीमित हो गईं. परिणामस्वरूप हर कोने में हर भारतीय की एक ही जाति जैसी बन गई. जबकि अंग्रेजी राज से पहले जाति की सीमाएं भाषा और क्षेत्रीय इतिहास से जुडी होती थी. दूसरे, अंग्रेजी राज ने जाति की औपनिवेशिक आधुनिकता का संक्रमण पैदा किया- जिसमें उसकी गिनती हुई, जिसमें उनकी परस्पर दूरियों का निर्धारण हुआ और जिसके दौरान कुछ जातियों को वंचित समूह के रूप में पहचान का अधिकार मिला. इसी परिवेश में हमें ज्योतिबा फुले, शाहूजी महाराज, डा. भीमराव अंबेडकर और रामास्वामी नायकर जैसे सामाजिक क्रांतिकारियों की भूमिका का मूल्यांकन करना चाहिए. औपनिवेशिक राज्यसत्ता के जाति दर्शन को लेकर इन समाज नायकों ने नई दृष्टि और वैकल्पिक व्यवस्था की मांग की. जिस पर अंग्रेजी राज ने कोई सीधी नीति कभी इख्तियार नहीं की. लेकिन सारांशतः यह तो स्वीकारा ही जाएगा कि अंग्रेजी राज के दौरान लगभग डेढ शताब्दी की अवधि में कई कोनों से जाति के विरूद्ध आंदोलन उठे और इन आंदोलनों ने भक्ति आंदोलन से लेकर गैर हिंदू धर्मों से वैधता प्राप्त की. इन आंदोलनों के दबाव से जाति परंपरा के दोष के रूप में सर्वसम्मति से स्वीकृति के दायरे में आ गई.
परिणामतः जब हम जाति की आधुनिकता के दूसरे दौर में पहुंचे, यानी स्वाधीनोत्तर भारत में जाति का स्थान तय करने का अवसर आया तो संविधान सभा ने तीन साल की लंबी बहस के बाद सर्वसम्मति से भविष्य के भारत के लक्ष्य के तौर पर जातिविहीन और वर्गविहीन समाज की रचना का संकल्प किया. यह असाधारण राष्ट्रीय सहमति थी जिसे आनी वाली पीढियां एक सांस्कृतिक क्रांति का दस्तावेज मानेंगी क्योंकि भारत के स्वाधीनता के पूर्व के किसी भी काल में- बौद्घ, मुगल, अंग्रेज या देशी रियासतों के द्वारा प्रवर्तित समाज व्यवस्था में जाति का कहीं न कहीं एक दबाव जारी रहा. स्वाधीन भारत के आरंभिक दशकों में जाति व्यवस्था के आधार होने वाले भेदभाव को न केवल अवैध करार देना, बल्कि जाति के कारण सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक और सांस्कृतिक अवसरों से वंचित लोगों के लिए विशेषाधिकारों की व्यवस्था, यानी आरक्षण का प्रावधान किसी क्रांति से कम नहीं था.
लेकिन आज आरक्षण की नीति एक नए मोड पर पहुंच गई है. यह जाति के जनतांत्रीकरण और आधुनिकीकरण का निर्णायक परिणाम है. आज आरक्षण की नीति को लेकर आरक्षण से वंचित समूहों से ज्यादा आरक्षण के दायरे में समेटे गए समूहों के बीच अंतर्विरोध प्रकट हो रहा है. इसके चार स्तर तो सभी को दिखाई पड रहे है- पहला स्त्री और पुरूष का अंतर. एक ही जाति में, जिसे आरक्षण का लाभ दिया गया है, पुरुषों की तुलना में स्त्रियों के लिए सीमित अवसर हैं, और इसके लिए समाज की पितृसत्तात्मक व्यवस्था की मूल जिम्मेदारी है जो खुले और अप्रत्यक्ष तौर पर जाति को पुष्ट करती रही है. जाति और लिंगभेद के दायरे एक-दूसरे पर पलते रहे हैं. आरक्षण की नीति से इसको टूटना चाहिए था लेकिन कई कारणों से आज आरक्षण से लाभान्वित जातियों में भी इस प्रश्न का एक अलग स्थान है.
स्त्री-पुरूष के प्रसंग के अलावा आज जाति के संदर्भ में दलितों के बीच में दलित और महादलित का ध्रुवीकरण पूरे देश में पहचाना जा चुका है. पहले ये पंजाब और आंध्रप्रदेश में अदालतों में चर्चा का विषय बना और आज ये बिहार से शुरू होकर उत्तर प्रदेश तक आरक्षण की नीति में संशोधन का आधार बनाया गया है.
तीसरी बात, अन्य पिछडा वर्ग से संबंधित आरक्षण के पिछले बीस बरस के सामाजिक परिवर्तन के प्रयोगों के मौजूदा परिणामों को लेकर है. इसके दो नतीजे दिखाई पड रहे हैं- एक तरफ अन्य पिछडा वर्ग के दायरे में कई समूह राजनीतिक, शैक्षणिक और सरकारी नौकरियों में अपनी उपस्थिति बढाने में सफल हुए हैं. उन्होंने शुरू के दशक में एक अगडा बनाम पिछडा का ध्रुवीकरण भी पैदा किया लेकिन अब अन्य पिछडा वर्ग के नेतृत्व को लेकर पिछडा वर्ग की दबंग या प्रभु जातियों में होड हो रही है.
चौथी बात, आरक्षण नीति को लेकर एक चीज सकारात्मक तौर पर दिखाई पड रही है- धर्मों के दायरे में पल रही जाति व्यवस्था पर प्रहार के लिए आज आरक्षण की नीति के इस्तेमाल का आग्रह है. इसकी अगुवाई दलित-ईसाई आंदोलन से हुई और अब हिंदुओं और मुसलमानों में भी कई समूह या तो खुद को अन्य पिछडा वर्ग में शामिल कराने का आंदोलन चला रहे हैं, या आरक्षण के अंदर उपआरक्षण की मांग कर रहे हैं.
यह सब अंततः समाज में महामंथन पैदा कर रहा है क्योंकि हम स्त्री-पुरुष, जाति प्रसंग, धार्मिक समूहों में निहित विषमता, गांव और शहर के बीच का अंतर और द्विजों व गैर-द्विजों के बीच के फासले को बहुत गहराई तक देखने के लिए आत्मविश्वास पैदा कर चुके हैं. इसी के समानांतर संक्षेप में यह भी देखने की जरूरत है कि भारत में आज 'जाति तोडो' या जातिविरोधी आंदोलनों की क्या दशा है. शुरू में इन आंदोलनों को हमने दक्षिण भारत में ब्राह्मणविरोधी मोर्चा और पश्चिम भारत में गैर-ब्राह्मण मोर्चे के रूप में उभरते देखा था जिसमें ब्राह्मणों की सर्वोच्चता को जाति व्यवस्था का मूलाधार मानते हुए उसका निषेध व उससे आगे समाज को ले जाने की कोशिश पहला लक्ष्य माना गया था. लेकिन आज जातिविरोधी आंदोलनों के पुराने वाहक थके से लगते हैं. मध्यम जातियों में पूरे भारत में जाति को लेकर कोई विशेष नकारात्मक आग्रह दिखाई नहीं पड रहा है. इसके परिणामस्वरूप उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में दलितों को अपने हितों की रक्षा के लिए और अपने राजनीतिक क्षेत्रफल के विस्तार के लिए ब्राह्मणों के साथ खुला मोर्चा बनाकर सर्वजन समाज की राजनीति को शुरू करने का दबाव स्वीकारना पडा है. क्या कारण है कि आज जाति विरोधी आंदोलन के मूल वाहक, यानी मध्य जातियां और दलित जातियां परस्पर सहयोग में असमर्थ हैं? क्या कारण है कि जाति व्यवस्था से सबसे ज्यादा पीडित समाज अंश, यानी विभिन्न जातियों की स्त्रियां, एक दूसरे के साथ मिलकर महिला आरक्षण का आंदोलन तो चला रही हैं लेकिन महिला आरक्षण को मंडलवादी ताकतों का सीधा मुकाबला करना पड रहा है? क्या कारण है कि आरक्षण नीति के विस्तार के लिए सर्वोच्च न्यायलय के खुले निर्देशों के बावजूद हम परस्पर सहयोग और साझेदारी के भाव के बजाय हिस्से और बंटवारे की बात ज्यादा कर रहे हैं? आरक्षण में आरक्षण आज सभी पुरानी जाति तोडो शक्तियों का लक्ष्य बन गया है. इससे जाति को एक नया आधार मिलता दिखाई पड रहा है. क्योंकि अगर हमारी जातीय पहचान संगठित नहीं होगी, घुली-मिली रहेगी तो हमारा आरक्षण के अंदर आरक्षण का दावा पूरा नहीं हो सकता. परिणामस्वरूप जाने-अनजाने जाति की पीडित जमातें कई कारणों से जातिगत पहचानों को नया आधार और नया आकार देने की संवैधानिक व्यवस्था के लाभ के लिए विवशता महसूस कर रही हैं.
ये सब तो राजनीति की बातें हुईं, क्या भूमंडलीकरण के कारण जाति व्यवस्था पर कुछ प्रभाव पड रहा है? क्या देश भर में रोजगार की तलाश में लाखों की तादाद में एक इलाके से दूसरे इलाके जा रहे लोगों का सच जाति व्यवस्था को कमजोर करने, यानी अंतर्जातीय विवाहों को बढाने में कुछ मदद कर रहा है? इन सबसे उपर आधुनिक शिक्षा और सूचना क्रांति से जाति की सीमाओं और समस्याओं को लेकर हम कुछ ज्यादा आत्मालोचक बनने की क्षमता विकसित कर रहे हैं? इन सभी प्रश्नों का उत्तर 21वीं शताब्दी के दूसरे दशक को देना पडेगा क्योंकि अब न तो पुरानी जाति व्यवस्था चल सकती है और न ही जातिविहीन समाज बनाने का पुराना आदर्श किसी के लिए भी आकर्षक रह गया है. फिर तीसरा रास्ता क्या होगा, जिसमें स्त्री, दलित, अतिपिछडा, अल्पसंख्यकों का पिछडा और आदिवासी खुलकर जनतंत्र की व्यवस्था में निहित त्रिमुखी न्याय का लाभ उठा सके और सारा समाज परस्पर सहमति के आधार पर जातिविहीन और वर्गविहीन दुनिया की रचना के ऐतिहासिक संकल्प के साथ ईमानदारी से अपना संबंध बनाए रख सके. इसके लिए अगर हम नए प्रसंगों को पुरानी समस्याओं की परछाई से दूर नहीं करेंगे तो बहस तो चलेगी 21वीं शताब्दी में लेकिन मुहावरे और मुद्दे 19वीं और 20वीं सदी के हम पर हावी रहेंगे. यह दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति होगी. इसलिए आज, कम से कम समाज-वैज्ञानिकों को, राजनीतिज्ञों और जातीय समूहों के नायकों का बोझ हल्का करने के लिए उन पर दोषारोपण करने की बजाय नई परिस्थितियों का वैज्ञानिक विश्लेषण समाज के सामने प्रस्तुत करना चाहिए. इसी के समानांतर समाज को बदलने का सपना देखने वालों को भी जाति प्रसंग की अनदेखी करने की बजाय जाति के अंदर फूट रही नई शाखाओं, सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक चेहरे में दिख रही नई भाव भंगिमा को भी नजदीक से समझने का साहस दिखाना चाहिए.
(गंगा सहाय मीणा से हुई बातचीत पर आधारित)