Wednesday 30 November 2011

इंदिरा गांधी की पुण्‍यतिथि‍

श्रीम‍ती इंदिरा गांधी जिन परिस्थितियों में भारत की प्रधानमंत्री बनी और जिन परिस्थितियों में प्रधानमंत्री रहते हुए उनका दुखद अंत हुआ, दोनों ही उनको दुनिया की एक विशिष्‍ट राजनेता के रूप में महत्‍वपूर्ण बना चुकी हैं. इंदिरा जी के राजनीतिक योगदान के पांच पहलू आज की नेतृत्‍वविहीनता के दौर में और भी निखरकर दीखने लगे हैं. श्रीम‍ती इंदिरा गांधी का सबसे बडा कौशल अत्‍यंत विषम परिस्थितियों में सीधी चुनौती के साथ अपने मकसद के लिए अर्जुन जैसी एकाग्रता के साथ हर तरह के कलाकौशल का इस्‍तेमाल करके मकसद हासिल करना कहा जा सकता है. इसलिए वह दोनों अतियों की तरफ गईं. एक तरफ जब उनके प्रधानमंत्री के रूप में नेतृत्‍व को चुनौती दी गई तो उन्‍होंने अपने बाबा और पिता की बनाई कांग्रेस पार्टी को ही एक बेकार औजार के तौर पर मानकर एक पूरी नई पार्टी खडी कर दी. और जबर्दस्‍त राजनीतिक कौशल दिखाते हुए एक ऐसा नारा दिया जिसने 1971 में उनको देश ने सर्वमान्‍य नेता के रूप में विजय का सेहरा बांधा. दूसरी तरफ जब उनकी अपनी शासन व्‍यवस्‍था के दोषों को लेकर जयप्रकाश जी तथा उनके जैसे कुछ अन्‍य लोगों ने कुछ असुविधाजनक सवाल उठाए तो प्रतिपक्ष को बेअसर करने के लिए उन्‍होंने आपातकाल लगाने में भी संकोच नहीं किया. इंदिरा जी का दूसरा महत्‍वपूर्ण गुण उनकी राजनीतिक दृष्टि की तात्‍कालिकता और दीर्घकालिकता के बीच का समन्‍वय था. बैंकों के राष्‍ट्रीयकरण से लेकर बांग्‍लादेश के निर्माण में पहल तक उन्‍होंने न केवल असरदार राजनीति की, बल्कि दीर्घकालिक संरचनागत परिवर्तनों का भी नेतृत्‍व किया. इंदिरा जी का नेता के रूप में अपने अत्‍यंत यशस्‍वी जननायक पिता की परछाई से निकलकर गांव-गांव तक जनसाधारण के बीच सहज माता छवि का अधिकारी बन जाना उनकी खूबियों का सचमुच एक आकर्षक पक्ष है. इंदिरा जी को गंभीर राजनीतिक विचार दर्शन का अनुयायी या अत्‍यंत कुशल संगठन निर्माता, दोनों ही कहना मुश्किल होगा. लेकिन एक आकर्षक और सहज स्‍वीकार्य छवि को प्रस्‍तुत करने और उसको लगभग दो दशकों तक बनाए रखना भारतीय जनतंत्र के संदर्भ में मामूली उपलब्धि नहीं कही जाएगी. आज जब चौतरफा सत्‍ता प्रतिष्‍ठान के प्रति अविश्‍वास का वातावरण है, ऐसे में इंदिरा गांधी के नेतृत्‍व में तत्‍कालीन सरकार व्‍यवस्‍था ने गरीबों से लेकर वामपंथियों और पूंजीपतियों से लेकर राष्‍ट्रवादियों तक के बीच में जो आकर्षण पैदा किया था वह भी एक अजूबा ही कहा जाएगा. क्‍योंकि उनके समकालीन अन्‍य नेता टिकाउ राजनीति के जनक नहीं बन सके. शेख मुजीवुर्रहमान से लेकर जुल्‍फीकार अली भुट्टो तक दक्षिण एशिया में इंदिरा जी के समान व्‍यापक स्‍वीकृति वाला लंबे दौर का कोई दूसरा सत्‍ताधारी नहीं दिखाई पडता है. इस मायने में उन्‍होंने अमेरिका और इंग्‍लैण्‍ड के राष्‍ट्राध्‍यक्षों को पीछे छोडा. आज पीछे मुडकर देखने पर वामपंथियों से लेकर राष्‍ट्रवादियों तक सभी इंदिरा जी के शासन काल की कई नीतियों में कई दोष निकालते दिखाई पडते हैं, लेकिन यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि उन्‍होंने जयप्रकाश जी के आंदोलन के पहले और 1980 का चुनाव जीतने के बाद सबकी जुबानें बंद कर दी थी. किसी के पास कोई विशेष मुद्दा नहीं बचा था. दलितों, अल्‍पसंख्‍यकों और सवर्णों का ऐसा संयुक्‍त मोर्चा इंदिरा गांधी के नेतृत्‍व में सामने आया जो सारी सैद्धांतिक कसौटियों से परे बन गया था. इसलिए आज भी इंदिरा जी के सम्‍मोहन में देश के मध्‍यमवर्ग और बुद्घिजीवियों का बडा हिस्‍सा उनके जैसे नेता की बार-बार तलाश करता दिखाई पडता है. इंदिरा गांधी की आखिरी बात एक मायने में उनके निजी व्‍यक्तित्‍व को लेकर है. इंदिरा जी ने जिस कौशल के साथ जननेता, राजनेता और परिवार मुखिया, तीनों के बीच में संतुलन स्‍थापित किया, वह दुर्लभ ही कहा जाएगा. आज उनकी स्‍मृति तिथि पर यह कहना अति‍शयोक्ति नहीं होगा कि भारतीय राजनीति की एक विशिष्‍ट शैली की सूत्रधार के रूप में इंदिरा गांधी का अत्‍यंत सफल कार्यकाल रहा. इस शैली के अंतर्विरोधों का भी उन्‍होंने नुकसान उठाया है. इंदिरा जी जनतांत्रिक राजनीति के इतिहास में और भारतीय राष्‍ट्रनिर्माण की महागाथा में एक अत्‍यंत महत्‍वपूर्ण मिशाल के रूप में बहुत दिनों तक प्रासंगिक बनी रहेंगी. राजनीति के सर्वोच्‍च शिखर तक जाना, पदच्‍युत होने पर हाशिए पर फेंके जाना और वापस पुनः सफलता हासिल करके अपने यश और आधार को फिर पाना- यही इंदिरा गांधी की कहानी का सारांश है.

(गंगा सहाय मीणा से हुई बातचीत पर आधारित)

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