पूंजीवाद के नए और अत्यंत आकर्षक अवतार के रूप में भूमंडलीकरण के झंडे के नीचे विश्व की बडी कंपनियों और औद्योगिक राष्ट्रों ने पिछले बीस बरस से जो मायानगरी बनाने की कोशिश की थी, आज वह अपनी नाभि में ही तीव्र पीडा और गंभीर रोगों से ग्रस्त दिखाई पड रही है. आज से बीस साल पहले जब भूमंडलीकरण के भविष्य को लेकर, विशेषतौर पर श्रमजीवी जमातों की हितरक्षा के सवाल पर, जब चिंताएं प्रकट की गईं थी तो इसको निराशावादियों का प्रलाप कहा गया था. यह माना गया था कि आज की दुनिया कंप्यूटर और इंटरनेट के जरिए एक-दूसरे से कुछ इस तरह से जुडेगी कि शोषण, विषमता और निर्भरता- पूंजीवाद के ये तीनों सनातन सत्य प्रासंगिक नहीं रह जायेंगे. एक बराबरी की दुनिया बनेगी, जिसमें इंटरनेट और कंप्यूटर पूंजी और ज्ञान के क्षेत्र में विषमताओं को दूर करने में प्रबल सहायक बनेंगे. टेक्नोलॉजी को नए ईश्वर के तौर पर पेश करने वाला यह तर्क आज पूरी तरह से बेपर्दा हो चुका है. क्योंकि न सिर्फ एशिया, अफ्रीका और लैटिन अमेरिका की परिधि पर टंगे हुए राष्ट्रों के लोग, बल्कि अब इस उदारीकरण और भूमंडलीकरण की धुरी में स्थापित श्रमशक्ति से जुडे लोगों का स्वर पूरी तरह से मोहभंग का हो चुका है. कल तक यह कहा जा सकता था कि भूमंडलीकरण की संभावनाओं और इसकी शक्ति का उन लोगों को कोई अंदाज नहीं है जिन्होंने कंप्यूटर की शिक्षा नहीं पाई, अंग्रेजी नहीं पढी और औद्योगिक क्रांति संपन्न करने में असफल रहे. इसीलिए जब प्लाचीमाडा और कलिंगनगर में आदिवासी स्त्री-पुरुष अपनी जान की बाजी लगाकर भूमंडलीकरण का विरोध कर रहे थे तो दुनिया ने विशेष ध्यान नहीं दिया, लेकिन अब तो वॉल स्ट्रीट पर ही कब्जा करने का अमरीकी लोगों का अभियान चल रहा है और अमेरिका की देखा-देखी बाकी पूंजीवादी देशों में भी हाशिए पर फेंके जा रहे लोग, विशेषतौर पर युवाओं की तरफ से, खुलेआम इस व्यवस्था का लाभ उठा रहे बैंकों, उद्योगधंधों और नेताओं के त्रिगुट को चनौती दे रहे हैं. इसमें खुशी की यह बात भी है कि अमेरिका ने इस बार यह सब कौशल अरब देशों से सीखा है. वे खुलकर गांधी को अपना प्रेरणा स्रोत बता रहे हैं. एक भी घटना ऐसी नहीं है जिसको आप किसी की साजिश के तौर पर थोप सकें. यह एक स्वतः स्फूर्त और जनता की वेदना की गहराई से जुडा हुआ विश्वव्यापी असंतोष है. अगर कल तक भूमंडलीकरण के दावेदार यह कह रहे थे कि आपसे हम बहुत निकट हैं, कोका कोला और मैकडॉनल्ड कुछ किलोमीटर की दूरी पर दुनिया के हर क्षेत्र में आपको मिलेगा, तो आज यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि भूमंडलीकरण के हर प्रतीक पर आज लोगों के गुस्से का बादल मंडरा रहा है. दुनिया के किसी भी क्षेत्र में, पेरिस से लेकर पटना तक, और शंघाई से लेकर शाहजहांपुर तक, कहीं भी भूमंडलीकरण के पक्ष में एक भी सकारात्मक घटना या प्रगति दिखाई नहीं पड रही है.
लेकिन अगर असंतोष किसी विकल्प के साथ नहीं जोडा गया, अगर असंतोष के मूल में भूमंडलीकरण की बुनियादी खराबी के तीनों चेहरों की चर्चा नहीं की गई तो यह असंतोष फिर बगैर किसी बडे नतीजे के घुल-मिल जाएगा. भूमंडलीकरण की तीन बडी खराबियां हैं- गरीब को हाशिए पर फेंकना, टेक्नोलॉजी के बहाने नई विषमता पैदा करना और पर्यावरण के बारे में कोई सरोकार नहीं रखना. इसीलिए ये टिकाउ नहीं है. जोसेफ स्टिग्लिट्ज ने ये जरूर कहा था कि भूमंडलीकरण मुमकिन है, बशर्ते कि ये न्यायपूर्ण हो. लेकिन न्यायपूर्ण होना पूंजीपतियों की फितरत में नहीं है. बगैर मुनाफा कमाए, निजी पूंजी पर आधारित कोई व्यवस्था चल नहीं सकती. मुनाफे के लिए न्यायसंगत दामनीति से आगे लूट-खसोट की अर्थनीति चलानी पडती है. मुनाफे में ग्राहक और श्रमिक, दोनों के साथ शोषण का संबंध बनाया जाता है, उनको मजबूर किया जाता है कि वे सस्ता श्रम बेचें और महंगा माल खरीदें.
इसके बरक्स, इसके विकल्प के तौर पर जो समाजवादी भूमंडलीकरण की बात थी, जिसमें विश्व-बंधुत्व की बुनियाद पर 'जिसकी जितनी क्षमता, उससे उतना योगदान' और 'जिसकी जितनी जरूरत, उसको उतना सहयोग', यानी गरीब देशों का कर्जा माफ करना, खेती में पूंजी ले जाना, साधनहीन पानी, बिजली, सडक, शिक्षा, स्वास्थ्य का ताना बाना बुनना, जो किसी जमाने में विली ब्रांड की अध्यक्षता में गठित उत्तर-दक्षिण आयोग की सिफारिश थी, जिसके सचिव भारत के वर्तमान प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह स्वयं थे. यह कहा गया था कि दुनिया को एकजुट करने के लिए संपन्न देश अपनी राष्ट्रीय आय का दशमलब सात प्रतिशत भी अगर एक विश्व विकास कोष में जमा करें तो दुनिया को भूख और भय, दोनों से मुक्ति मिलेगी. लेकिन ऐसा किया नहीं गया. अब जब वॉल स्ट्रीट में ही हंगामे के हालात हैं तो फिर से विकल्प की तरफ दुनिया का ध्यान जा सकता है. ऐसे में इस बडी लहर का इंतजार कर रहे लोगों की ये जिम्मेदारी बनती है कि नई विश्व रचना के आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक पक्ष के बारे में समता और संपन्नता के आधार पर क्या नियम बनें, और क्या व्यवस्थाएं छोडी जाएं? क्या प्रतिबंधित हो और क्या संवर्द्धित हो, इसकी बहस शुरू की जाए. अगर हम जरूरत से ज्यादा तमाशबीन बने रहे, तो थकान भी आ सकती है. और जब थकी हुई जनशक्ति आक्रामक और सुसंगठित पूंजीशक्ति के मुकाबले में खडी होगी तो कहीं न कहीं से तानाशाही और जनतंत्रविरोधी ताकतों को खुराक मिलने लगेगी. यह याद रखना होगा कि फ्रांस की जनता ने दुनिया को तो समता, स्वतंत्रता और बंधुत्व का संदेश दिया लेकिन वे खुद फ्रांस को समेट नहीं पाए और उनको अपनी क्रांति के बावजूद नेपोलियन बोनापार्ट जैसे तानाशाह का युद्धान्मुख शासन कई बरस तक झेलना पडा. यही जर्मनी में भी हुआ था, जहां क्रांति की परिस्थितियां तो पकी हुई थीं लेकिन संगठन और सहयोग और विकल्प के बारे में सहमति का अभाव था तो हिटलर पैदा हो गया. आज दुनिया को नेपोलियन बोनापार्ट और हिटलर की जरूरत नहीं है, लेकिन गांधी कहां है, नया विकल्प कहां है, बेहतर दुनिया बनाने वाला नेतृत्व कहां है?
(गंगा सहाय मीणा से हुई बातचीत पर आधारित)
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