Wednesday 30 November 2011

भ्रष्‍टाचार के खिलाफ लोहा गरम है

भ्रष्‍टाचार भारतीय समाज समेत सभी जनतांत्रिक और गैर-जनतांत्रिक देशों की राष्‍ट्र-निर्माण की प्रक्रिया की सबसे बडी चुनौती है. भ्रष्‍टाचार का अर्थ निजी हितों के लिए सार्वजनिक पदों का दुरुपयोग है. हमारी नई सत्‍ता व्‍यवस्‍था राजनीतिक समानता, सामाजिक और आर्थिक न्‍याय, परस्‍पर भाईचारा और राष्‍ट्रीय एकता के आधार पर बनाना चाहते हैं, इसमें अगर हमारे ही वोट से पदों पर बैठे हुए लोग, हमारे ही संविधान के अंतर्गत कार्यपालिका और न्‍यायपालिका का विभिन्‍न पदों पर बैठे लोग, हमारे ही पैसे में गबन करें, हमारे ही विकास में बाधक बनें, हमारी ही गठरी में चोरी करें तो यह हमारी राजनीतिक और सैद्धांतिक पराजय का क्षण हो जाता है. संपन्‍नता के समाज में तो भ्रष्‍टाचार और जनतंत्र का कोई रिश्‍ता हो सकता है, लेकिन गरीबी, जनतंत्र और भ्रष्‍टाचार साथ-साथ नहीं चल सकते. इसलिए मैं भ्रष्‍टाचार को किसी वर्ग विशेष, दल विशेष या काल विशेष की समस्‍या न मानकर इसे जनतंत्र निर्माण की सबसे बडी समस्‍या, सबसे बडी चुनौती के रूप में देखता हूं. यह आग और पानी जैसा संबंध है. अगर जनतंत्र की ज्‍वाला को प्रज्‍जवलित करना है तो भ्रष्‍टाचार से हमें अपने को दूर रखना पडेगा. अब सवाल यह उठता है कि भ्रष्‍टाचार के कारकों में इधर, एकाएक इतनी बढोतरी क्‍यों हो गई? इसका जवाब ये है कि तमाम कमियों के बावजूद आजादी के बाद के दिनों में जो पहली पी‍ढी शासकों की बनी, वह सादगी और स्‍वाबलंबन से जुडे रास्‍ते पर चलने के लिए प्रतिबद्ध थी. इसी क्रम में उसने सत्‍ता के लिए संपत्ति के संचय को जरूरी नहीं माना. लेकिन पिछले 25 सालों में सत्‍ता अपने आप में एक लक्ष्‍य बन गई है. जिसके हाथ में सत्‍ता है, उसके दरवाजे पर बहुदेशी कंपनियों से लेकर देशी निहित स्‍वार्थों की लंबी कतारें लग जाती हैं. उनके सिद्धांत, दर्शन और राजनीतिक दिशा से इन तबकों का कोई वास्‍ता नहीं है. वे अपने ता‍त्‍कालिक हितों के लिए सत्‍ताधारियों की सेवा में बहुत कुछ समर्पित करने को तैयार रहते हैं. क्‍योंकि राजनीति अब तात्‍कालिक गठजोड के आधार पर सत्‍ता पाने की सीढी बन गई है, इसलिए इसमें साम-दाम-दण्‍ड-भेद, सबका इस्‍तेमाल बाजिव हो गया है. पहले राजनीति राष्‍ट्र-निर्माण का मोर्चा थी, अब राजनीति सत्‍ता की भूख से व्‍याकुल कुर्सी झपटने और कुर्सी से लिपटने की लडाई हो गई है. ये गुणात्‍मक अंतर आया है. खुलेआम पूंजीवाद की तरफ जाना, खुलेआम मुनाफे और संपत्ति संचय को आदर्श बनाना राजनीति में एक बडे बदलाव के तौर पर देखा जा सकता है. इसका यह अर्थ नहीं है कि भ्रष्‍टाचार के निदान के लिए हमें नई आर्थिक नीतियों के बदलने तक का इंतजार करना चाहिए. ये नीतियां तो अपने अंतर्विरोधों के कारण देर-सवेर बदलेंगी ही. लेकिन इनके बदलने के बावजूद भ्रष्‍टाचार राजनीतिक कलाकौशल का, संसदवादी प्रयासों का एक अनिवार्य अंग बनता जा रहा है. यह आगे के दिनों में भी एक लंबी परछाई की तरह हमारे सार्वजनिक जीवन में बना रहेगा.

     जैसा राजनीतिक परिवर्तनों के लिए चलने वाले आंदोलनों के इतिहास में हुआ है, हर नई लडाई पुरानी लडाई की बेटी जैसी होती है. उसकी सफलताएं और असफलताएं पिछली लडाइयों के दौरान सीखे गए सबकों से जुडते हैं. आज अन्‍ना हजारे, रामदेव, अरविन्‍द केजरीवाल, प्रशांत भूषण से लेकर गांव-कस्‍बे में सूचना के अधिकार का इस्‍तेमाल करने वाले अनाम जनहितकारी जनसंगठनों औ व्‍यक्तियों की लंबी कतार का प्रस्‍थान बिंदु 1974 का जयप्रकाश नारायण जी के नेतृत्‍व में चला भ्रष्‍टाचार विरोधी आंदोलन है. जयप्रकाश जी के आंदोलन का मूल 1973-74 के गुजरात और बिहार के विद्यार्थियों की भ्रष्‍टचार के खिलाफ बगावत थी. इस मायने में आज की इस लडाई को उस महागाथा का एक नया अध्‍याय मानता हूं. इन सबके मूल में राष्‍ट्रीय आंदोलन के बलिदानियों की लंबी कतार है जिन्‍होंने निस्‍वार्थ भाव से उस समय के भ्रष्‍टाचारियों का मुकाबला करते हुए आने वाले दिनों की आशा में उन्‍होंने उस समय मौत से लेकर जेल की चीखों तक का वरण किया. वह आंदोलन जो गांधी, भगतसिंह के बीच के व्‍यापक दायरे से पैदा ऊर्जा से चला था, जिसके बलिदान ने एक पूरी नई पीढी तैयार की थी, उनके आत्‍मविश्‍व‍ास और आत्‍मबल के कारण भारत विदेशी जमातों की जकड से आजाद हो सका था. इसके बाद आज की लडाई जयप्रकाश जी के संपूर्ण क्रांति आंदोलन से जुडती है.

एक मायने में यह लडाई अलग इस तरह से है कि आज समूचा राजनीतिक तंत्र इस लडाई के आह्वान और संबोधन से बाहर है. जयप्रकाश जी के जमाने में राजनीतिक कार्यकर्ताओं में से सदाचारी और भ्रष्‍टाचारी की पहचान हो जाती थी. सदाचारियों का बहुमत था, भ्रष्‍टाचारियों का अल्‍पमत था. आज समूची राजनीतिक जमात दुर्योधन दरबार जैसी दिखाई पडती है. झंडा किसी रंग का हो, शासन में आने के बाद सबकी चाल एक जैसी हो जाती है. सबके चेहरे पर अवैध कमाई की चिकनाहट दिखाई पडने लगती है. सभी दल सत्‍ता हासिल करने के लिए काले धन के इस्‍तेमाल से मोहब्‍बत करने लगे हैं. मॅनीपॉवर, मसलपॉवर और मीडिया पॉवर, यानी धनबल, बाहुबल और प्रचार बल- इस त्रिकोण में वे लोकतंत्र की आत्‍मा का हनन करने में भी संकोच नहीं करते. इसलिए मैं इस लडाई को चिंता की दृष्टि से देखता हूं. अगर ये लडाई सफल हुई तो ये सिद्ध हो जाएगा कि राजनीतिक जमातें हमारे देश की दुर्दशा में समाधान की जगह व्‍यवधान है. और अगर ऐसा निर्णय निकला तो यह जनतंत्र की सबसे बडी जरूरत राजनीतिक चेतना, राजनीतिक जिम्‍मेदारी, राजनीतिक कर्म को पूरा करने में हमारा समाज लंबे समय तक अक्षम हो जाएगा. भारतीय समाज में जनतांत्रीकरण राजनीतिकरण के बाद ही संभव है. आज की राजनीति जनतांत्रीकरण की साधक की बजाय बाधक हो रही है. आज की संसद जनतंत्र को गहरा करने के बजाय उसकी जडों में जहर डाल रही है. लेकिन आने वाले समय में अगर हमें जनतंत्र की जरूरत है तो चुनाव की भी जरूरत होगी, चुनाव होंगे तो दल होंगे, दल होंगे तो उनकी आपसी होड होगी, और होड होगी तो उसमें युद्घभाव होगा या राष्‍ट्रनिर्माण का भाव होगा, यह आज तय करना जरूरी है.

आज की लडाई की सफलता का एक बडा आधार यह होगा कि जनलोकपाल बिल और सरकारी लोकपाल बिल में से कौनसा आता है. जब-जब समाज में ध्रुवीकरण होता है तो दोनों ही पक्षों के शुभ एक-दूसरे से मिल जाने की संभावना रखते हैं. कभी-कभी दोनों पक्षों का अशुभ भी एक-दूसरे से मिल जाता है. क्‍या दिल्‍ली से लेकर बैंगलोर तक फैली ये सोने की लंका, जो कालेधन से बनी है, का दहन होगा और गांव और गरीब की भूमि पर नया समाज बनाने के लिए प्रतिबद्ध राजनीतिज्ञों की जमात अपने-अपने दलों पर फिर से कब्‍जा कर लेगी, यह एक बडा प्रश्‍न है. इसमें अन्‍ना हजारे जैसे लोगों को ध्‍यान देना पडेगा. भ्रष्‍टाचार का एक बडा कारण राजनीतिक जमातों में नैतिकता का अवमूल्‍यन है. जो साधन की शुचिता का ध्‍यान रखते थे, वे चुनाव हारने लगे हैं. इसके माध्‍यम से एक व्‍यावहारिक अस्तित्‍वादी संकट पैदा किया गया है. केवल सत्‍ता में बैठे लोगों को नियंत्रित करने के लिए हमें कानून नहीं चाहिए, इसके साथ सत्‍ता को चलाने वाली समूची राजनीतिक संस्‍कृति को भी हमें फिर से शुद्ध करना पडेगा. इसके लिए चुनाव प्रक्रिया में सुधार आवश्‍यक हैं.

मैं इस ताजा लडाई के प्रति हार्दिक शुभकामना रखते हुए इसके अधूरेपन के प्रति गहरी आशंका भी रखता हूं. इसके लिए अन्‍ना हजारे की तरफ देखना, उनके कंधे पर सारी जिम्‍मेदारियों डालना, गैर-जिम्‍मेदारी होगी. इस समय लोहा गरम है. देश की सारी लोकतांत्रिक ताकतों को भ्रष्‍टाचार के खिलाफ शंखनाद करने का इससे अच्‍छा समय नहीं आएगा, जो जहां है वहां अन्‍ना हजारे बने. दर्शकदीर्घा में खडे लोग इस आंदोलन की अगली कडी बनें. यह जयप्रकाश आंदोलन के जैसा विकेन्द्रित आंदोलन है. समुद्र की लहर जैसा ये उठ रहा है और मामूली बूंद आकाश तक उछलने की क्षमता रख रही है, बशर्ते वह स्‍वयं पवित्र जल की बूंद हो.  

(गंगा सहाय मीणा से हुई बातचीत पर आधारित)

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