Wednesday 30 November 2011

लोकतंत्र और वर्तमान राजनीतिक परिदृश्‍य

इस समय एक साथ सूर्योदय और सूर्यग्रहण जैसा दिखाई पड रहा है. खगोलशास्त्रियों की दृष्टि में ये असंभव वैज्ञानिक घटना होगी लेकिन समाज-वैज्ञानिकों की दृष्टि में एक तरफ जनता के बीच में आशाओं के हनन और निराशाओं के बादल घिरने के कारण एक असाधारण अभिव्‍यक्ति का दौर अन्‍ना हजारे के अनशन के बहाने शुरू हुआ, जो स्‍वामी रामदेव के अनशन से होते हुए अन्‍ना के दूसरे अनशन तक लगभग तीन-चार महीने आत्‍ममंथन के रूप में देश की स्‍मृति में एक महत्‍वपूर्ण स्‍थान बना चुका है. यह भारतीय लोक का आत्‍मसाक्षात्‍कार है जिसमें वो अपनी ही बनाई जनतांत्रिक व्‍यवस्‍था, अपने ही वोट से चुने हुए दलों के नेताओं और जनप्रतिनिधियों के अत्‍यंत अस्‍वीकार्य आचरण को लेकर मर्माहत हैं और मोहभंग के दौर से गुजर रहे हैं. मोहभंग के बावजूद आशा का भी एक नया अध्‍याय शुरू हुआ है क्‍योंकि सिवाय नाराजगी के और कुछ भी करना है. इसमें दो स्‍पष्‍ट लक्ष्‍य बन गए हैं- चुनाव सुधार और चुने हुए जनप्रतिनिधियों तथा संविधान के जरिए ताकत पाने वाले अधिकारियों की मनमानी पर रोक लगाना. इन लक्ष्‍यों को पूरा करने के लिए एक कानूनी दृष्टि से स्‍वीकार्य मसविदा भी पेश हो गया है. इस माने में अब रामलीला मैदान के जरिए जनता के दरबार में जनप्रतिनिधियों की पेशी हो गई है. इसने पूरे देश में तमाम प्रकार की प्रतिक्रियाएं पैदा की हैं, जो लोकतंत्र का आत्‍ममंथन भी है और इस समय एक नया देवासुर संग्राम भी है. क्‍योंकि खुले तौर पर भ्रष्‍टाचार के पक्षधर और भ्रष्‍टाचार से पीडित आमने-सामने हो गए हैं. यह अलग बात है कि भ्रष्‍टाचार के पक्षधर बिल्‍कुल दुर्योधन दरबार की शैली में अहंकार के अट्टाहास लगाते दिखाई पड रहे हैं. व्‍यंग्‍य कर रहे हैं, आरोप लगा रहे हैं, मुकदमे मढ रहे हैं और दूसरी तरफ असहायता की अंतिम सीढी पर अन्‍ना हजारे जैसा एक जनप्रवक्‍ता खडा दिखाई पड रहा है जिसके इर्द-गिर्द मुट्ठीभर आदर्शवादी समाजसेवी और असंख्‍य शुभचिंतक हैं.

      दूसरी तरफ सूर्यग्रहण इस मायने में हो रहा है कि देश की के‍न्‍द्रीय और राज्‍य सरकारों में नीतिहीनता का चरमबिंदु दिखाई पड रहा है. इसको अंग्रेजी में पॉलिसी पैरालिसिस भी कहा जा रहा है. सरकारों में परस्‍पर समन्‍वय का अभाव है- केन्‍द्र और राज्‍यों के बीच में. केन्‍द्र की सरकार और राज्‍यों की सरकारें एक ही मुद्दे पर अलग-अलग स्‍वर से बोल रही हैं. इस सबका सारांश सर्वोच्‍च न्‍यायलय के नोटिस पर भारत सरकार के विशेषज्ञों की सर्वोच्‍च समिति अर्थात योजना आयोग द्वारा पेश यह बयान है कि अगर आज के हालात में कोई भी व्‍यक्ति 25 रूपये दैनिक से ज्‍यादा की खर्च की क्षमता रखता है तो उसे गरीब नहीं मानना चाहिए. इसी के समानांतर यह सच भी सामने आ चुका है कि देश के 77 फीसदी लोग 20 रुपया रोज से ज्‍यादा की आय क्षमता नहीं रखते. दूसरी तरफ भारत की केबिनेट में केन्‍द्रीय सरकार के 77 फीसदी मंत्री करोडपति और अरबपति हैं. इस विडंबना का क्‍या समाधान हो सकता है, इसको हम आने वाले चुनाव के संदर्भ में जरूर ध्‍यान में रखें क्‍योंकि जनता के बीच में अक्‍सर छोटे सवालों के आगे बडे सवाल ध्‍यान से उतर जाते हैं. जैसे, भाषा का सवाल, रोजगार का सवाल. विभिन्‍न जातियों द्वारा आरक्षण की मांग से जाहिर हो गया है कि हिस्‍सामार की राजनीति हो रही है. टुकडे-टुकडे की राजनीति हो रही है. इसमें एक समग्र दृष्टि, अर्थात मोहभंग से पैदा एक नए विकल्‍प का आवेग पूरी भारतीय जनता के लिए एक लंबी छलांग जैसा मौका है जिसमें औरत का दर्द है, पिछडे का दर्द है, दलित की तकलीफ है, गरीब सवर्णों का स्‍वर है, और कुल मिलाकर जनसाधारण की आवाज है. बहुत दिनों बाद लघुमानव महामानवों से पंजा लडाने की जुगत लगा रहा है. लोकतंत्र लघुमानव का ही तंत्र है. जाने-अनजाने पिछले 20 साल के उदारीकरण ने किसानों के दाम की लूट की, आदिवासियों की जमीन पर कब्‍जा किया, मध्‍यवर्ग को मृगमरीचिका में फंसाया. अब जब यह सब अमेरिका में ही नहीं चल पा रहा है, फ्रांस, जर्मनी, इंग्‍लैण्‍ड में ही जब इसकी बार-बार जांच हो रही है, तो भूमंडलीकरण का नशा अब भारत के आम मतदाता के लिए काम की चीज नहीं रह गई है.

      इसी तरह से पिछली सरकार की असफलताओं के बाद जो संयुक्‍त प्रगतिशील गटबंधन में कांग्रेस का हाथ आम आदमी के साथ का आश्‍वासन दिया था और उसके बाद महात्‍मा गांधी ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना, शिक्षा का अधिकार, सूचना का अधिकार आदि को कानून बनाया तो एक उम्‍मीद थी कि ये सुधर रहे हैं. ये बेहतर हो रहे हैं. सचमुच आम आदमी की पीडा इनके मन को छू रह है. लेकिन अन्‍ना हजारे के अनशन से यह सब एक स्‍वांग जैसा साबित हुआ है. अगर कपिल सिब्‍बल से लेकर राहुल गांधी तक सब एक स्‍वर से आम आदमी की आवाज को बल देने के लिए अन्‍न त्‍याग कर चुके अन्‍ना हजारे पर इतना खुला हमला करने का दुस्‍साहस करते हैं तो यह कहने में संकोच नहीं करना चाहिए कि सत्‍ता का नशा चारों तरफ फैल गया है.

      इसी तरह से गैर-कांग्रेसी दलों की तरफ से फिर से ढोंग की राजनीति करने का दुस्‍साहस किया जा रहा है. 2002 से लगातार, पहले आम नागरिकों के प्रति, उसके बाद उनके प्रति हमदर्दी रखने वाले पुलिस-प्रशासनिक अधिकारियों को तरह-तरह से प्रताडित करने के बाद नरेन्‍द्र मोदी ने तीन दिन का सद्भावना उपवास रखा. दुर्भावना की राजनीति को सद्भावना की मुलम्‍मेबाजी से छिपाने की कोशिश किसके लिए की जा रही है? नरेन्‍द्र मोदी जैसे राजनेता राजधर्म को नहीं जानते, यह उनके आका भी स्‍वीकार कर चुके हैं. बजाय प्रायश्चित्‍त स्‍वरूप सार्वजनिक जीवन से सन्‍यास लेने के वह दिल्‍ली पर भी अपनी निगाह गडाने का साहस कर रहे हैं. मुझे लगता है कि नरेन्‍द्र मोदी जैसे लोग देश के लिए एक खास तरह की चुनौती हैं. वे ये समझते हैं कि आम आदमी की याददाश्‍त नहीं है, समझ नहीं है और आम आदमी को भुलावे में डाला जा सकता है.

      इसी के समानांतर दलित अस्मिता को नया आयाम देने वाली उत्‍तर प्रदेश की नेता और चौथी बार मुख्‍यमंत्री सुश्री मायावती भी संविधान और भारतीय राष्‍ट्र-निर्माण की चुनौतियों को दरकिनार करके प्रलाप जैसी स्थिति में पहुंच गई हैं. दलितों के आरक्षण में सुधार की बजाय वोट की तलाश में कभी वे सवर्णों को आरक्षण का आश्‍वासन दे रही है तो कभी मुसलमानों को. और जो आरक्षण पिछडे मुसलमानों और गरीब सवर्णों के लिए हैं, जो वायदे दलित और आदिवासियों के लिए हैं, औरतों के लिए हैं, उनकी पूरी अनदेखी करते हुए एक के बाद एक पत्‍थर की मूर्तियों का सिलसिला बना रही हैं. इनका मुकाबला करने वाली पार्टियों की तरफ से भी कोई ताजी दृष्टि नहीं आ रही है. वही वोट बैंक की राजनीति, वही अपराध और कालेधन का संयोग और उसके बाद चुनाव में लोक-लुभावन नारों के जरिए मतपेटियों को भरने का सपना.

      मैं समझता हूं कि भारतीय जनतंत्र अत्‍यंत नाजुक दौर से गुजर रहा है, जिसमें जनता और नेता के बीच इतनी दूरी शायद आपातकाल के 19 महीनों के बाद कभी नहीं थी. जब जनता और नेता के बीच दूरी होती है तो दो ही संभावनाएं हैं- नेता जनता को अपने मोहपाश में बांधे और गलत इरादों और गलत लक्ष्‍यों की तरफ पूरी राष्‍ट्रशक्ति को झौंक दे, जैसा हिटलर ने जर्मनी के संकट के समाधान के तौर पर पेश किया था और छह बरस तक जर्मन जनता को अपनी उंगलियों पर नचाता रहा. या जनता एक पीढी को इन्‍कार करती हुई नए नेतृत्‍व की ओर मुडे और जमीन से जनसेवकों की गहरी जडों वाली राजनीति को अपनी मुहर लगाए जैसा 1974-77 के दौर में लोकनायक जयप्रकाश की अगुवाई में जनता ने करने की कोशिश की थी. उससे भी पहले 1921 में महात्‍मा गांधी के नेतृत्‍व में उन्‍होंने एक नए तरह के राजनीतिक व्‍याकरण की रचना की थी.

      मैं आशावादी हूं क्‍योंकि 1950 से आज तक निराशा के गहन क्षणों में से ही आशा का सूरज उगता हमने देखा है. ये 1964-67 में हुआ, 74-77 में हुआ, 89-91 में हुआ, इस बार क्‍यों नहीं होगा? जो नजीजे हाल के चुनाव में बंगाल से आए, केरल से आए और कुछ उपचुनावों से आए, उससे पूरी तरह से आश्‍वस्‍त होने को मन करता है कि अगले दो बरस में राज्‍य सरकारों के चुनाव में और फिर केन्‍द्र की सरकार के चुनाव में हम सब अत्‍यंत विवेकसम्‍मत निर्णय प्रस्‍तुत करके अपने लोकतंत्र की लाज बचाएंगे और जनसाधारण के हो रहे नित्‍य अपमान से उसे मुक्ति दिलाएंगे. इन नेताओं का क्‍या होगा, कहना मुश्किल है. अगर हम सब सक्षम, समर्थ, सक्रिय, संगठित और संयमित रहे तो अधिकांश लोगों को मुकदमों में अपनी सफाई देनी पडेगी और उनमें से ढेर सारे लोगों को अपने किये की सजा के विभिन्‍न कारागारों में भुगतनी पडेगी. 

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(गंगा सहाय मीणा से हुई बातचीत पर आधारित)

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